ऐतिहासिक मकाम पर किसान आंदोलन
तो दिल्ली की सरहदों पर किसान आंदोलन के 100 दिन पूरे हो गए। नवंबर के अंतिम सप्ताह में जब यह आंदोलन शुरू हुआ तो तब शायद ही किसी को यह उम्मीद थी कि यह इतना लंबा चलेगा। लोकतांत्रिक आंदोलनों का इतिहास तो यही कहता है कि आंदोलन होते हैं, थोड़े दिनों में सत्ता या सरकार के साथ आंदोलनकारियों की बातचीत होती है, दोनों पक्ष एक मुद्दे पर सहमत होते हैं और आंदोलन खत्म हो जाता है।
तो दिल्ली की सरहदों पर किसान आंदोलन के 100 दिन पूरे हो गए। नवंबर के अंतिम सप्ताह में जब यह आंदोलन शुरू हुआ तो तब शायद ही किसी को यह उम्मीद थी कि यह इतना लंबा चलेगा। लोकतांत्रिक आंदोलनों का इतिहास तो यही कहता है कि आंदोलन होते हैं, थोड़े दिनों में सत्ता या सरकार के साथ आंदोलनकारियों की बातचीत होती है, दोनों पक्ष एक मुद्दे पर सहमत होते हैं और आंदोलन खत्म हो जाता है। कहने के लिए तो किसान आंदोलन में भी बातचीत का दौर चला। मगर 11 दौर की बातचीत के बाद भी वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका। किसान अपनी मांगों को लेकर डटे रहे और दूसरी ओर सरकार अपनी जिद पर अड़ी रही। लोकतंत्र के इतिहास में किसी आंदोलन के बरक्स सरकार की जिद की ऐसी बानगी कभी नजर नहीं आती। गोया, किसानों को सरकार की इस जिद का एहसास था। क्योंकि 100 दिनों का किसान आंदोलन देखने के बाद यह साफ है कि किसान दिल्ली की सरहदों पर आंदोलन को लंबे समय तक चलाने की तैयारी के साथ आए थे। यही वजह रही कि वे सरकार के साथ बातचीत के दौरान कभी भी अपनी मांगों के साथ समझौता करते नजर नहीं आए।
बताया जाता है कि पंजाब और हरियाणा के किसान संगठनों ने सितंबर में संसद से कानून पारित होने के बाद से ही आंदोलन के लिए हर किसान परिवार के लिए मासिक चन्दा तय करके वसूली प्रारंभ कर दी थी और अब तो यह आंदोलन दिल्ली की सरहदों से पसरता हुआ तकरीबन मुल्क भर में फैल चुका है। आंदोलन के लिए चंदा जमा करने की प्रक्रिया भी संस्थागत रूप ले चुकी है। किसान आंदोलन की पुख्ता तैयारी का ही नतीजा था कि किसानों ने इस दौरान तमाम बाधाओं को झेला मगर पीछे नहीं हटे। दिसंबर और जनवरी की भयंकर सर्दी के बावजूद उनको धरना देने में किसी प्रकार की असुविधा महसूस नहीं हुई। बुजुर्ग किसानों के साथ-साथ महिलाएं और बच्चे भी धरने पर नजर आते रहे। सभी टेंटों में कंबल गद्दों के साथ-साथ हीटर भी लगा दिए गए थे। हालांकि जिसे लेकर गोदी मीडिया और आंदोलन के विरोधियों ने इसे बदनाम करने की कोशिश भी की। सरकार और भाजपा की ओर से बारहा यह साबित करने की कोशिश की गई कि खालिस्तानी और वामपंथी संगठनों की ओर से किसानों को गुमराह करने के लिए यह आंदोलन चलाया जा रहा है, जिसे कांग्रेस समर्थन कर रही है। मगर किसानों ने ऐसी कोशिशों की कभी परवाह नहीं की।
किसान नेता राकेश टिकैत का कहना है कि अप्रैल से जून तक की गर्मियों से निबटने के लिए अभी से ही एयर कंडीशनर और कूलर का इंतजाम करना प्रारंभ कर दिया गया है। बहरहाल, सौ दिनों का लब्बोलुआब यह रहा कि किसानों का यह आंदोलन ऐतिहासिक बन चुका है और इस ऐतिहासिक आंदोलन की खासियत रही है कि आंदोलन का कोई एक चेहरा नहीं है। किसानों नेताओं की एक समिति है जो सारे अहम फैसले लेती है। हालांकि 26 जनवरी को दिल्ली में ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा के बाद जो स्थिति पैदा हुई। उसके बाद राकेश टिकैत एक लोकप्रिय किसान नेता के तौर पर तो जरूर उभरे हैं। मगर उन्हें आंदोलन का चेहरा नहीं कहा जा सकता है। जन आंदोलन के प्रतिमानों के लिहाज से बेशक यह आंदोलन अनूठा और ऐतिहासिक बन चुका है। हर आंदोलन की शुरुआत किसी न किसी मुद्दे को लेकर होती है। मौजूदा किसान आंदोलन की भी वजह सरकार की ओर से पारित तीन विवादित कृषि कानून हैं। जो मुल्क भर के किसानों की समस्या को बढ़ाने वाला हैं। जहां तक किसानों की समस्या का सवाल है तो कृषि लागतों में बढ़ोतरी आज खेती-किसानी की सबसे बड़ी समस्या है। बीज, खाद, दवाई, श्रम-मजदूरी, डीजल एवं कृषि उपकरणों की कीमतें जिस अनुपात में बढ़ रहीं हैं, उस अनुपात में कृषि उत्पादों की कीमतें नहीं बढ़ रहीं हैं। यही इस समय कृषि की सबसे बड़ी ज्वलंत समस्या है।
स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों में साफ तौर पर खेती-किसानी से जुड़ी सभी तरह की लागतों एवं खर्चों को जोड़ा गया है। कृषि कार्य में बीज, खाद, दवाई, जुताई, बुवाई-कटाई, मिंजाई, मजदूरी आदि सभी खर्चे जरूरी तो होते हैं। जिनका भुगतान किसानों को नकदी के रूप में करना होता है, लेकिन इससे भी अधिक अहम किसान एवं उसके परिवार के सभी सदस्यों की कड़ी मेहनत होती है। पूरे परिवार के लोग फसलों के तैयार होते तक लगे रहते हैं। स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों में इन सभी चिंताओं की ओर ध्यान दिया गया है। सरकार इसे ही लागू कर देती तो किसानों का भला हो जाता। मगर सरकार ने तो तीनों विवादित कृषि कानूनों को लाकर छत की मरम्मत करने के बजाय छत को ही उजाड़ने की तैयारी कर ली है। बहरहाल, सौ दिनों के बाद किसान आंदोलन जिस ऐतिहासिक मुकाम तक पहुंच गया है, उससे किसानों की जिम्मेदारी और बढ़ गई है। यह आंदोलन अब लोकतंत्र की बुनियादी लड़ाई में बदल चुकी है। लिहाजा, इस आन्दोलन को भी किसानों के साथ-साथ आम जनता से जुड़े दीर्घकालिक सवालों को अब अपना एजेंडा बनाना होगा।
-शिवेश गर्ग (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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