वैश्विक शक्ति-संतुलन और भारत पर असर

संकट के समय 

वैश्विक शक्ति-संतुलन और भारत पर असर

अमेरिका का केवल 24 घंटे के नोटिस पर हमारे देश पर 50 फीसदी अचानक लगाया गया शुल्क किसी के लिए चौंकाने वाला नहीं होना चाहिए।

अमेरिका का केवल 24 घंटे के नोटिस पर हमारे देश पर 50 फीसदी अचानक लगाया गया शुल्क किसी के लिए चौंकाने वाला नहीं होना चाहिए। हमें सिर्फ एक दिन पहले इसका पता चला और 21 दिन का समय मिला कि शायद कोई राहत निकल आए। दिलचस्प यह है कि चीन, जिसे अमेरिका का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी बताया जाता है,को न सिर्फ कम शुल्क दर मिली, बल्कि तैयारी के लिए लंबा नोटिस भी। वजह साफ है उनके पास दुर्लभ धातुओं पर लगभग एकाधिकार है, जिनकी जरूरत अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बैटरी और मोबाइल फोन जैसे इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के लिए है। पिछले कुछ दिनों की घटनाओं पर नजर डालें, तो यह आभास भी होता है कि हमारे उत्तरी पड़ोसी के पास एक और महत्वपूर्ण बढ़त थी, उन्होंने अमेरिका के साथ अपने व्यापार या सैन्य संबंध किसी भी तरह के ट्रस्ट पर आधारित नहीं किए थे। नतीजा यह हुआ कि उनकी तैयारी पहले से और बेहतर रही। इसके उलट, हमें बताया जा रहा है कि यूक्रेन युद्ध को हवा हमारे रूसी तेल खरीदने से मिल रही है, ना कि यूरोप के रूस से कहीं अधिक मूल्य के गैस आयात से या फिर खुद अमेरिका की रूसी खरीदारियों से। लेकिन इसमें आश्चर्य क्या यही तो सॉफ्ट पावर है, जब आप दुनिया के लगभग 70 प्रतिशत मीडिया पर नियंत्रण रखते हैं, तो अंतरराष्ट्रीय जनमत को अपनी दिशा में मोड़ना मुश्किल नहीं होता।

विशाल घरेलू बाजार :

पश्चिमी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की प्रारंभिक प्रतिक्रिया भी उत्साहजनक नहीं रही। उनका मुख्य सरोकार शायद समझा भी जा सकता है, यह था कि अमेरिकी उपभोक्ताओं को महंगा सामान तो नहीं मिलेगा, न कि यह कि भारत जैसे देश के करोड़ों छोटे किसान, कारीगर और कम मजदूरी पर काम करने वाले औद्योगिक मजदूर जीवन-मरण के संकट में कैसे गुजर-बसर करेंगे। तो अब एक बार फिर हमारे सामने वही पुराना सवाल खड़ा है, क्या किया जाए, कम अवधि में एकमात्र ठोस विकल्प यह है कि अपने विशाल घरेलू बाजार को नए सिरे से, संगठित और केंद्रित प्रयासों से खंगाला जाए। इसके लिए हर सेक्टर और हर उत्पाद का अलग-अलग आकलन कर, उत्पादन और आंतरिक व्यापार में आ रही रुकावटों को योजनाबद्ध तरीके से हटाना होगा, ताकि उत्पादकों को बड़े वैकल्पिक बाजार मिल सकें। साथ ही, उत्पादन और वितरण लागत घटाने की समानांतर कोशिश करनी होगी। फिर भी यह राहत आंशिक ही होगी, खासतौर पर उन क्षेत्रों में, जैसे वस्त्र उद्योग, जहां हालिया वृद्धि का बड़ा हिस्सा निर्यात-आधारित रहा है।

संकट के समय :

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बीते अच्छे आर्थिक वर्षों में निर्यात-आधारित वृद्धि को अक्सर रामबाण माना गया, लेकिन ऐसे संकट के समय सच्चाई यही उजागर होती है कि असली सहारा केवल आपके आंतरिक तंत्र की ताकत और लचीलापन ही होता है। कुछ लोग वैकल्पिक अंतरराष्ट्रीय बाजार खोजने और उसमें हिस्सेदारी बढ़ाने पर तुरंत काम करने की बात कर रहे हैं। पर सबसे आशावादी आकलन में भी इसके नतीजे मध्यम अवधि में ही मिलेंगे। फिर भी, यह रास्ता अपनाना जरूरी है। बाजारों का विविधीकरण ही शुल्क अवरोधों के खिलाफ सबसे मजबूत सुरक्षा कवच है। जितना अधिक किसी बाजार में यानी कुछ बड़े खरीदारों का प्रभुत्व होगा,उतना ही खरीदार के पास शुल्क का दबाव बनाने की ताकत होगी। यही सबक यहां भी है,अच्छे समय में कुछ तेजी से बढ़ते बाजारों पर निर्भर रहना आसान और लाभदायक लग सकता है, लेकिन बुद्धिमानी इसी में है कि कम प्रतिफल होने के बावजूद विविधीकरण पर उतनी ही ऊर्जा लगाई जाए। यह ठीक वैसा है जैसे सेना का सिद्धांत कहता है शांति में ज्यादा पसीना बहाओ, युद्ध में कम खून बहेगा।

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शत्रुतापूर्ण कार्रवाई :

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आखिरकार, हम सभी जानते हैं कि चाहे जितने भी निवारक कदम उठाए जाएं, इस एकतरफा और शत्रुतापूर्ण कार्रवाई का दर्द वास्तविक होगा और सबसे अधिक चोट खाएंगे हमारे समाज के सबसे नाजुक वर्ग गरीब, असहाय, छोटे बच्चे और बुजुर्ग। इसलिए, आय और रोजगार सृजन, स्वास्थ्य तथा अन्य सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों के उत्पादन और वितरण को अधिकतम प्रभावी बनाने की जरूरत पहले से कहीं अधिक है। तो, इस पूरी घटना से हमें क्या सीखना चाहिए, सबसे अहम बात हमें अपने भरोसे की सीमा तय करनी होगी, चाहे सामने वाले कितने भी हितैषी और भलेमानस लगें। विश्वास करने से पहले जहां तक संभव हो, जांच-परख करनी होगी। मशहूर कथन है स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होते, केवल स्थायी हित होते हैं। और आज के सौदेबाजी प्रधान युग में जब बदलती रेत पर हित भी स्थायी नहीं रहते, तो भरोसा एक महंगा विलास बन जाता है। ऐसे में, हमारे लिए सही मंत्र यही है,भगवान् में भरोसा करें, भलमनसाहत में नहीं।

-ए. मुखोपाध्याय
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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