जलवायु परिवर्तन और शहरीकरण से बढ़ते सक्रंमण

बचाव की दिशा में त्वरित प्रयास 

जलवायु परिवर्तन और शहरीकरण से बढ़ते सक्रंमण

दुनियाभर में सेहत हमेशा से सबसे बड़ा चिंता का विषय रहा है।

दुनियाभर में सेहत हमेशा से सबसे बड़ा चिंता का विषय रहा है। सबसे ज्यादा चिंता इस बात की है कि पूरी दुनिया आने वाले समय में फं गस की वजह से नया स्वास्थ्य संकट झेलने को मजबूर होगी, क्योंकि दुनिया में ब्लैक फंगस के हर साल 100 करोड़ लोग शिकार हो रहे हैं। दुनिया में एस्परजिलस फ्यूमिगेटसेफ नामक एक घातक फंगस गंभीर खतरा बन सकता है। यह फंगस एशिया समेत दुनियाभर में फेफ ड़ों के रोगों को तेजी से बढा सकता है। यदि समय रहते सावधानी नहीं बरती गई, तो यह फंगस लाखों लोगों की जान ले सकता है। यह फं गस गर्म और नम वातावरण में तेजी से बढ़ता है और 37 डिग्री सेल्सियस तापमान में भी जीवित रह सकता है। यह फं गस उन लोगों के लिए जानलेवा है, जिनकी प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है और जो धूल वाले वातावरण में रहते हैं व अस्थमा, कैंसर, एच आई वी, अंग प्रत्यारोपण वाले मरीज, बुजुर्ग तथा लम्बे समय से बीमार होते हैं। अकेले योरोप में ही इससे 90 लाख लोग संक्रमित हो सकते हैं। एक खतरा और भी दुनिया की 44 फीसदी आबादी पर मंडरा रहा है, वह है जानवरों से होने वाले जूनोटिक रोग का। दुनियाभर के 3.5 अरब लोग इसकी जद में आ सकते हैं।

बीमारियों और मृत्युदर में बढ़ोतरी :

वैज्ञानिकों ने इसके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष खाद्य जनित, वेक्टर जनित और जल जनित रास्तों से फैलने की चेतावनी दी है। प्रत्यक्षत: यह जानवरों की लार, खून, मूत्र, बलगम या अन्य शारीरिक तरल पदार्थ के संपर्क से फैलता है। इसका असर क्रिप्टोस्पोरिडियोसिस एड्स पीड़ित लोगों में तेजी से होता है, जिससे उसकी मौत भी हो सकती है। इसकी उत्पत्ति विभिन्न कारकों से जुड़ी है, जिसमें मनुष्यों का जानवरों से बढ़ता संपर्क, शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन, वन्य जीवों और मानवीय आबादी के बीच की दूरी का तेजी से खत्म होते चला जाना अहम है। बीमारियों और मृत्युदर में बढ़ोतरी के अलावा इसके गंभीर आर्थिक दुष्परिणाम हो सकते हैं। कुछ गंभीर मामलों में यह जानलेवा भी हो सकती है। वैज्ञानिकों की चिंता का अहम कारण यह भी है कि इसकी चपेट में भारत, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया की दस फीसदी आबादी पर सबसे ज्यादा जोखिम है। जानवरों के शरीर पर पाई जाने वाली किलनी यानी अठई के खून में घातक बैक्टीरिया पाए जाते हैं, जिससे इंसेफेलाइटिस जैसा ही एक्यूट फेब्रायल इलनेस रोग हो सकता है। इसका निष्कर्ष आई सी एम आर के रीजनल मेडीकल रिसर्च सेंटर के शोध से सामने आया है। इसमें पाया गया कि इंसानों की बस्ती के पास पाई जाने वाली स्तनपायी प्रजातियों में चमगादड़, वानर और लीमर हैं, जिनसे इस तरह की बीमारी हो सकती है।

प्राकृतिक आवासों में मानवीय अतिक्रमण :

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दुनियाभर में नौ फीसदी क्षेत्र उच्च जोखिम की स्थिति में है। इसमें जूनोटिक प्रकोप होने की प्रबल संभावना है। वैश्विक आबादी का करीब तीन फीसदी हिस्सा अधिकाधिक जोखिम वाले इलाके में निवास करता है। लगभग एक पांचवां हिस्सा मध्यम जोखिम वाले इलाकों में वास करता है। जूनोटिक रोग या जूनोसिस ऐसा संक्रमण है, जो जानवरों और मनुष्यों के बीच फैलते हैं। ये रोग विभिन्न प्रकार के रोगियों में जैसे कि बैक्टीरिया, वायरस, कवक और परजीवियों के कारण हो सकते हैं। हाल ही में दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और कांगो गणराज्य में एम्पाक्स नामक वायरस के प्रकोप को भी एक जूनोटिक बीमारी माना गया, जिसकी उत्पत्ति के पीछे चमगादड की भूमिका थी। इसके साथ इसमें भी बैक्टीरिया और कवक पर परजीवियों का व्यापक असर ही जिम्मेदार बताया गया था। असलियत में विशेषज्ञ इस रोग का उद्भव साफ तौर पर वन्य जीवों के मांस की खपत से जुड़ा मानते हैं। इसकी बढ़़ोतरी के पीछे वह इनके प्राकृतिक आवासों में मानवीय अतिक्रमण को जिम्मेदार मानते हैं, जिसके चलते बाजारों में वन्य जीव अंग व मांस की खपत की बढ़ती मांग ने हालत को और अधिक विषम बना दिया है। इस बारे में यूरोपीय आयोग के संयुक्त अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक विकास कार्यक्रम इकाई के शोधकर्ताओं द्वारा ग्लोबल इंफेक्शन डिसीज एण्ड ऐपिडेमियोलाजी नेटवर्क डाटाबेस और डब्ल्यू एच ओ की उन बीमारियों की सूची का विश्लेषण किया गया है,जिनको महामारी या प्रकोप का कारण बनने की क्षमता के अनुसार प्राथमिकता दी गई है। इस विश्लेषण के उपरांत खुलासा हुआ कि जलवायु परिवर्तन से प्रेरित परिस्थितियों जैसे उच्च तापमान, बारिश और पानी की कमी जूनोटिक रोग की संभावना को बढ़ाते हैं।

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बचाव की दिशा में त्वरित प्रयास :

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एशिया में इसका सात फीसदी और अफ्रीका का लगभग पांच फीसदी इलाका इस प्रकोप के उच्च और बहुत ही उच्च जोखिम में है। लैटिन अमरीका और ओशिनिया का नंबर इसके बाद आता है। इससे पहले भी भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के अध्ययन में खुलासा हुआ था कि 2018 से लेकर 2023 के बीच देश के संक्रामक रोग निगरानी प्रणाली के तहत रिपोर्ट किए गए प्रकल्पों मे से आठ फीसदी से ज्यादा जूनोटिक रोगी पाए गए। यह कुल 6,948 में से 583 जानवरों से मानव में फैले थे। वहीं इन प्रकल्पों का सबसे ज्यादा प्रभाव जून, जुलाई और अगस्त के महीनों में रहा। अंतत: शोध और अध्ययन इसके प्रमाण हैं कि एशिया में अमेरिका से ज्यादा जूनोटिक का जोखिम है और जलवायु परिवर्तन को दृष्टिगत रखते हुए जलवायु अनुकूलन निगरानी को सार्वजनिक स्वास्थ्य योजना में रेखांकित करने और उससे बचाव की दिशा में त्वरित प्रयास कहें या कार्यवाई किए जाने की बेहद जरूरत है। तभी इसकी भयावहता पर कुछ अंकुश की आशा की जा सकती है।

-ज्ञानेन्द्र रावत
(यह लेखक के अपने विचार हैं)

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