पारंपरिक दीपक कला को महंगाई डायन मार रही
कुम्हार के परिवारों के युवा दूसरे कामों में दिखा रहे रुझान
लगातार घट रही दीयों व मिट्टी के बर्तनों की मांग से कुम्हारी कला से जुड़े कुम्हार हतोत्साहित हो रहे हैं।
करवर। जिले भर में चाक पर मिट्टी के दीपक बनाते कुम्हार का दर्द यही है कि वर्तमान समय के युवा इलेक्ट्रॉनिक्स युग के चकाचौंध में इलेक्ट्रॉनिक्स लाइटों की बढ़ती मांगों से भारतीय संस्कृति, मिट्टी के दिए से दीपावली मनाने की परंपरा विलुप्त सी होती जा रही है। ऐसे में लोग दीपावली पर रोशनी के लिए मिट्टी के दिए ही जलाए, जिससे विलुप्त होती जा रही कुम्हारों की कला जीवित हो सके। करवर कस्बे में वर्तमान में करीब 70 कुम्हार परिवार रहते हैं जिनमें से 8 ही पुश्तैनी धंधे को कर रहे हैं बाकी परिवार नौकरी सहित अन्य कार्य करने में रुचि दिखाने लगे।
चायनिज उत्पादों ने छिनी कुम्हारों की रोजी
दिवाली आते ही लोगों को घरों में मिट्टी के बर्तनों की जरूरत महसूस होने लगती है। मगर इसे बनाने वाला कुम्हार वर्ग मायूस है। आधुनिकता और महंगाई की मार सबसे ज्यादा इसी वर्ग पर पड़ी है। चाइनिज झालरों की चमक से मद्धिम पड़ते मिट्टी के दीयों की लौ से यह तबका पुश्तैनी धंधा बचाने को संघर्ष कर रहा है। कलश, दीया और मिट्टी के बर्तन का चलन लंबे समय से है। लेकिन चायनिज झालर ने मिट्टी के दीयों की मांग कम कर दी है। सस्ता और आकर्षक होने के कारण झालर ने आज हर घरों तक पैठ बना ली है। पूजा घरों में व अनुष्ठान के समय ही मिट्टी के दीपक घी या तेल से अनिवार्य रूप से जलाए जाते हैं। पहले कुम्हारों के घरों पर दीपावली के एक हफ्ते पहले से बच्चों के लिए मिट्टी के खिलौने, कलश, दीया व करवाचौथ से पहले करवा आदि को खरीदने के लिए ग्रामीणों की भीड़ जुटती थी। बदलते परिवेश में अब केवल परंपरा निभाई जा रही है। जो कुम्हारों के लिए घातक सिद्ध हो रही है। लगातार घट रही दीयों व मिट्टी के बर्तनों की मांग से कुम्हारी कला से जुड़े कुम्हार हतोत्साहित हो रहे हैं।
मिट्टी के बर्तन बनाने में यह आता है खर्चा
उपयोगी मिट्टी बड़ी मुश्किल से मिलती है, एक मिट्टी की ट्रोली 4 से 5 हजार में आतीं हैं। लकड़ी 70 प्रति किलो, लकड़ी का बुरादा 20 किलो 100 रुपए में मिलता है, जिससे मिट्टी से मटकी, धड़ा, दीपक, करवा, फालसा,कलश, बजौरा, गोलक, बच्चों के खिलौने सहीत अनेक मिट्टी से निर्मित वस्तुएं बनाई जाती है, जिसमें पूरे परिवार की मेहनत लगती है।
दीपावली पर मिट्टी के दीपक जलाने के कई कारण
क्षेत्र के बुजुर्गों का ऐसा मानना है। दीपावली पर्व पर मिट्टी के दिए जलाने के कई कारण होते हैं। सबसे बड़े कारण में एक यह है कि बढ़ते कीट के प्रकोप को समाप्त करने के लिए मिट्टी के दिए उपयोगी है। मिट्टी के जलते दिए से कीट मकोड़े दिए की ओर आकर्षित होते हैं और जलती दिए में जाकर किट मकोड़े जल जाते हैं। इससे कीट का प्रकोप काफी हद तक कम हो जाता है।
इनका कहना है
महंगाई की मार ने धीरे-धीरे कुम्हारी कला की व्यवसाय को बंद करने पर मजबूर कर दिया है। कुम्हारी कला को जीवित रखने के लिए इन्हें प्रोत्साहित करने की जरूरत है। ऐसा नहीं किया गया तो कुम्हारी कला जल्द ही लुप्त हो जाएगी।
- बलवीर प्रजापति,जिलाध्यक्ष बूंदी
महंगाई की मार ने धीर-धीरे कुम्हारी कला की व्यवसाय को बंद करने पर मजबूर कर दिया है। कुम्हारी कला को जीवित रखने के लिए इन्हें प्रोत्साहित करने की जरूरत है। ऐसा नहीं किया गया तो कुम्हारी कला जल्द ही लुप्त हो जाएगी।
- पप्पू लाल प्रजापति, कुम्हार कारीगर
अगर राज्य सरकार सामूहिक रूप से बर्तन बनाने के लिए जगह देने सहित गेस, इलेक्ट्रॉनिक भट्टी व शेड के साथ मिट्टी के बर्तनों में मदद करती है तो इस काम को विमुख होकर अन्यत्र जा रहें युवाओं का पलायन रोका जा सकता है।
- हीरालाल प्रजापति, राष्ट्रीय कुम्हार महासभा, जिला अध्यक्ष बूंदी
अमावस्या के दिन मिट्टी के बर्तन में तेल डालकर काजल तैयार करते हैं। जो आंख के लिए औषधि है। जो काम मिट्टी का दीपक कर सकता है वह बिजली के झालर और बल्ब नहीं कर सकते। अनुष्ठान आदि तभी पूरा होता है जब उसमें मिट्टी के दीपक जलाए जाते हैं। इससे वातावरण में फैले कीट-पतंगों का नाश होता है।
- गोविंद पंडित, करवर
महंगाई और मेहनत के हिसाब से मिट्टी के बर्तनों की कीमत नहीं मिल पाती है। महंगाई के दौर में भी 1 रुपये प्रति दीया, 10 रुपये में करवा व 20 रुपये में कलश बिक रहा है। ऐसे में लागत भी नहीं निकल पाती। जहां पहले घरों में चार सौ पांच सौ दीये खरीदे जाते थे वहीं अब कुछ दीये खरीद कर रस्म अदायगी की जाती है।
- श्योजी लाल प्रजापति, कुम्हार कारीगर
हीरालाल प्रजापति प्रजापति समाज वर्षों से मिट्टी के बर्तन बनाने का कार्य करता आ रहा है, पर अब धीरे-धीरे समाज के लोगों का इस पारंपरिक धंधे से मोह भंग हो रहा है ,क्योंकि एक तो मिट्टी उपलब्ध नहीं हो पाती और बर्तनों को पकाने के लिए लकड़ियों की जरूरत होती है जो की कठिनाई से प्राप्त की जाती है और सरकार की उदासीनता के कारण यह धंधा चौपट होता जा रहा है।
- हनुमान प्रजापति,करवर
हीरालाल प्रजापति हीरालाल प्रजापति चाक के सहारे परिवार का गुजारा नामुमकिन है। यही कारण है कि इस पुश्तैनी पेशे को युवा छोड़ रहा है।
- हेमन्त प्रजापति, कुम्हार कारीगर
हीरालाल प्रजापति मिट्टी का व्यवसाई करने वाला कुम्हार समाज गांवों से शहरों की ओर पलायन कर रहा हैं, पुश्तैनी व्यवसाय मिट्टी के बर्तन बनाना अब मुनाफे का नहीं रहा, उपयोगी मिट्टी सहीत इंधन सब महंगा हो गया इस लिए युवा इस धंधे को छोड़ कर अन्य कामों को करने लगे, सरकार की ओर से नुकसान की भरपाई व सब्सिडी सहित बीमा योजना का लाभ इनको मिलना चाहिए आजादी से पूर्व व आजादी के बाद भी कबीरदास जी की उक्ति सत्य सार्थक हो रही है ,"माटी कहे कुम्हार से तु क्यों रौंदें मोए एक दिन ऐसा आएगा मैं रौंदूंगी तोए" वह दिन दूर नहीं।
- कजोडी लाल प्रजापति, राष्ट्रीय कुम्हार महासभा प्रदेश उपाध्यक्ष
हीरालाल प्रजापति दीपावली पर मिट्टी के दीपक जलाने की परम्परा भी बचीं रहें और कुम्हार की रोटी रोजी भी चलती रहें, कुंभकार की आर्थिक स्थिति को मजबूती देने के लिए सरकार को इस लघु उद्योग के रूप में बढ़ावा दिया जाना चाहिए, इससे उसकी कला जीवित रह सकेगी, वही कुम्हार को भी चाहिए कि वह अपनी कलाओं को आधुनिकता के रंग ढंग में रंग कर कर अपनी पीढ़ियों को इसके लिए प्रक्षेपित करे ताकि दीपावली के त्योहार पर उनके चेहरे खिले घरों में दीपक जले और इन सबके बीच सब की खुशियों का दीपपर्व मनाई जा सके।
- शशि शर्मा, रिटायर्ड अध्यापिका,करवर

Comment List