विकसित हो शोध की मौलिक संस्कृति
कोई राष्ट्र आर्थिक रूप से सुदृढ़ तभी होगा जब वहां विचारों की मौलिकता के क्षेत्र में निंरतर नया कार्य हो।
शिक्षा असल में सांस्कृतिक प्रक्रिया है। यह शक्ति का स्रोत, समाजीकरण का माध्यम एवं शोषण से मुक्ति का प्रमुख मार्ग है। इसलिए यह आवश्यक है कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा के इस दौर में शोध की आधुनिक चुनौतियों को स्वीकार करते हुए भी हम आगे बढ़ें।
कुछ समय पहले मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, तेलंगाना और राजस्थान के अलावा पूर्वोत्तर क्षेत्र, जम्मू और कश्मीर और लद्दाख के विश्वविद्यालयों में नए एवं उभरते क्षेत्रों में शोध एवं अनुसंधान क्षेत्र में कार्य करने के एक विशेष अभियान के अंतर्गत विश्वविद्यालय अनुसंधान उत्सव का आयोजन किया गया था। उद्देश्य यह था कि राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और मिशनों से जुड़े संभावित उच्च प्रभाव, अंत: विषयक अनुसंधान के लिए विद्यार्थियों को प्रोत्साहित किया जा सके। इस उत्सव के अंतर्गत तकनीकी दृष्टि से स्टार्ट-अप और रोजगार क्षेत्रों में तो कुछ नया कार्य हुआ भी है, परन्तु वैचारिक लिहाज से विश्वविद्यालयों में अभी भी शोध की मौलिक परम्पराओं पर बहुत अधिक कार्य हो नहीं पाया है।
रोजगारोन्मुखी शिक्षा के साथ कौशल विकास के प्रयास जरूरी है परन्तु इतना ही जरूरी यह भी है कि शोध की मौलिक संस्कृति से जुड़ा पर्यावरण हमारे यहां विकसित किया जाए। कोई राष्ट्र आर्थिक रूप से सुदृढ़ तभी होगा जब वहां विचारों की मौलिकता के क्षेत्र में निंरतर नया कार्य हो। यह समय सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का है। जिस गति से नवीनतम क्षेत्रों में कार्य हो रहा है, यह जरूरी है कि शिक्षण संस्थानों में अब केवल पाठ्यपुस्तकों पर ही विद्यार्थी निर्भर नहीं रहे। वे अपने आपको समय-संदर्भों से युक्त करते हुए नवीनतम क्षेत्रों के साथ अतीत के संदर्भो से जुड़े रहेंगे तभी व्यावहारिक रूप में भविष्य की चुनौतियों का सामना कर पाएंगें। युगीन संदर्भों में शिक्षा का प्रसार इस प्रकार से हो कि विद्यार्थियों में मौलिक सोचने की शक्ति विकसित हो। समर्थ शिक्षा का मूल आधार यही है कि उससे व्यक्ति रूढ़ियों से मुक्त हो। रूढ़ियों से मुक्ति मौलिक दृष्टि और चिंतन की नवीन सोच ही दे सकती है।
शिक्षा असल में सांस्कृतिक प्रक्रिया है। यह शक्ति का स्रोत, समाजीकरण का माध्यम एवं शोषण से मुक्ति का प्रमुख मार्ग है। इसलिए यह आवश्यक है कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा के इस दौर में शोध की आधुनिक चुनौतियों को स्वीकार करते हुए भी हम आगे बढ़ें। हमारे यहां शोध की जो एक परिपाटी बन गई है, वह यह है कि कुछ पुस्तकों को एकत्र कर उनसे एक और पुस्तक तैयार कर उसे शोध ग्रंथ रूप में प्रस्तुत कर दिया जाए। पर सवाल यह है कि इस तरह के शोध से मिलने वाली डिग्री क्या विद्यार्थी को भविष्य में कोई मुकाम दिला सकती है? शोध और अनुसंधान वही उपादेयी होता है जिसमें नवीन किसी विचार या धारणा को पुष्ट किया जाए। यही नहीं, शोध सर्वथा नवीन विषय के साथ समयानुकूल, उपयोगी और मौलिक स्थापना लिए होगा तभी उसका लाभ विद्यार्थी ही नहीं राष्ट्र को भी प्रभावी रूप में मिल सकता है।
जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जिसमें शोध की मौलिक संभावना नहीं हो। विश्वविद्यालयों में जितने भी विषय पढ़ाए जाते हैं, उनमें चाहे वह प्रबंध हो, विज्ञान हो, मानविकी हो या फिर तकनीकी क्षेत्र सभी के अंतर्गत उसके अपने स्थानीय क्षेत्र, परम्परा और पर्यावरणीय सरोकार होते हैं। उन सरोकारों की गहराई में जाते हुए अपने शोध को भारतीय और वैश्विक संदर्भों से जोड़कर कार्य किया जाता है तो उससे बहुत कुछ नया निष्कर्ष निकाला जा सकता है।
कभी सुप्रसिद्ध लेखक अनुपम मिश्र ने राजस्थान, बूंदेलखंड, मध्यप्रदेश और अन्य क्षेत्रों की जल-संस्कृति पर बहुत महत्वपूर्ण शोध कर लेखन कार्य किया था। उन्होंने तालाबों के नाम के साथ स्थानों के जुड़े संदर्भों के महत्वपूर्ण तथ्य अपनी बेहद लोकप्रिय रही पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब में दिए हैं। कैसे हम किसी एक संदर्भ की गहराई में जाएं तो किस्से-कहानियों का ही नहीं स्थानों से जुड़ी परम्पराओं के भी महती स्रोत हम एकत्र कर सकते हैं, उनकी यह पुस्तक इसका अनुपम उदाहरण है। उन्होंने इसमें एक स्थान पर गांवों के साथ लगे सर नाम को रेखांकित करते हुए लिखा है कि मलकीसर, उदयरामसर, हुसनसर आदि बहुत से गांवों के नाम के साथ सर इसलिए जुड़ा है कि सर का अर्थ तालाब होतरा है। वहां इसकी संस्कृति पोषित हुई है। ऐसे ही तालाबों के निर्माण में रही भामाशाहों की भूमिका, जल-संस्कृति के लिए किए गए कार्यों के लोगों से बातचीत कर, उनसे मिलकर उन्होंने अनूठे संदर्भ अपने लिखे में उजागर किए है। अनुपम मिश्र की पुस्तक कोई शोध ग्रंथ नहीं है पर शोध की संस्कृति कैसी हो, इसे एक तरह से समझाती है। मूल बात है, मौलिक दृष्टि की। जो कुछ हमारे आस-पास है, उसको देखते-परखते सूक्ष्म दृष्टि के पर्यवेक्षण की। शोध की अकादमिक गुणवत्ता एवं सामाजिक उपयोगिता, दोनों दृष्टियों से प्रभावी बनाने की इसी संदर्भ में आज अधिक जरूरत है। यह होता है तो उसका लाभ सभी क्षेत्रों में स्वाभाविक ही मिलेगा।
-डॉ. अरुणा व्यास
(ये लेखक के अपने विचार है)
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