मोबाइल और रील्स का बच्चों पर गहरा असर
जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर रहा है
बचपन जो हमेशा से मासूमियत, खेल और नई चीजें सीखने का समय माना जाता है, आज मोबाइल फोन के कारण बदलता जा रहा है।
बचपन जो हमेशा से मासूमियत, खेल और नई चीजें सीखने का समय माना जाता है, आज मोबाइल फोन के कारण बदलता जा रहा है। यह बदलाव धीरे-धीरे बच्चों की आदतों, उनके विकास और जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर रहा है। एक हालिया शोध में यह बात सामने आई है कि मोबाइल और खासकर रील्स की लत ने बच्चों के जीवन पर गहरा असर डाला है। यह शोध भीलवाड़ा के आरवीआरएस मेडिकल कॉलेज के मनोरोग विभाग द्वारा किया गया, जिसमें 3 से 8 साल के 50 बच्चों की आदतों और व्यवहार का अध्ययन किया गया। शोध में पाया गया कि आजकल बच्चे इतने मोबाइल पर निर्भर हो गए हैं कि उन्हें खाना खाने के लिए भी रील्स दिखाना पड़ता है। माता-पिता के लिए यह चुनौती बन गई है कि बिना मोबाइल दिखाए वे अपने बच्चों को खाना खिला सकें। बच्चों को मोबाइल का इतना चस्का लग चुका है कि वे बिना स्क्रीन के भोजन करने को तैयार ही नहीं होते। यह आदत न केवल बच्चों के खाने-पीने के तरीकों को प्रभावित कर रही है, बल्कि उनके व्यवहार, स्वभाव और मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर डाल रही है। बच्चों की इस लत के पीछे एक बड़ा कारण खुद माता-पिता हैं। कई बार जब बच्चे रोते हैं या जिद करते हैं, तो उन्हें शांत करने के लिए मोबाइल थमा देते हैं। यह आदत बच्चों के व्यवहार में इतनी गहराई से घुल जाती है कि वे मोबाइल के बिना खुद को असहज महसूस करने लगते हैं। अभिभावकों का यह रवैया बच्चों को मोबाइल की तरफ धकेल रहा है और इसके कारण उनकी स्वाभाविक बालसुलभ गतिविधियां पीछे छूट रही हैं। मोबाइल और रील्स की इस लत के कई दुष्प्रभाव सामने आए हैं। सबसे बड़ा प्रभाव यह है कि बच्चों की एकाग्रता में कमी आ रही है।
वे किसी भी काम पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते और जल्दी ही ऊबने लगते हैं। इसके अलावा मोबाइल पर ज्यादा समय बिताने से उनकी नींद पर भी असर पड़ रहा है। देर रात तक स्क्रीन देखने के कारण उनकी नींद पूरी नहीं होती, जिससे उनकी मानसिक और शारीरिक विकास प्रक्रिया बाधित होती है। बच्चों के स्वभाव में भी बदलाव देखा गया है। वे चिड़चिड़े और गुस्सैल हो रहे हैं। उनकी बातों और व्यवहार में एक तरह की उग्रता आ रही है। इसके अलावा मोबाइल की लत ने बच्चों को खेलकूद और आउटडोर गतिविधियों से भी दूर कर दिया है। पहले जो बच्चे घंटों खेल के मैदान में समय बिताते थे, अब वे ज्यादातर समय घर में बैठकर मोबाइल देखते हुए बिताते हैं। एक और बड़ी समस्या यह है कि मोबाइल पर ज्यादा समय बिताने से बच्चों की सामाजिक कौशल पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। वे दूसरों से बातचीत करने में झिझकते हैं और अपने आसपास के लोगों के साथ घुलने-मिलने से कतराते हैं। यह प्रवृत्ति उन्हें सामाजिक रूप से अलग कर रही है, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। इस समस्या को हल करने के लिए सबसे पहले माता-पिता को अपनी भूमिका समझनी होगी।
उन्हें यह समझना होगा कि बच्चों के जीवन में मोबाइल का स्थान सीमित होना चाहिए। मोबाइल का उपयोग यदि नियंत्रित और सही तरीके से किया जाए, तो यह एक उपयोगी उपकरण हो सकता है। इसके लिए डिजिटल वेलपिन जैसे फीचर्स का उपयोग किया जा सकता है, जो बच्चों के मोबाइल उपयोग को सीमित करने में मददगार साबित हो सकते हैं। बच्चों को मोबाइल से दूर रखने के लिए उन्हें रचनात्मक गतिविधियों में व्यस्त रखना चाहिए। बच्चों को खेल, पेंटिंग, म्यूजिक, डांस और पढ़ाई जैसी गतिविधियों के लिए प्रेरित कर सकते हैं। बच्चों के साथ समय बिताना, उनके साथ खेलना और उनकी रुचियों को समझना, उन्हें मोबाइल की लत से दूर रखने का एक प्रभावी तरीका हो सकता है। यदि बच्चों की मोबाइल लत समय पर नहीं रोकी गई, तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। लंबे समय तक मोबाइल पर ज्यादा समय बिताने वाले बच्चों में अटेंशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर जैसी समस्याएं विकसित हो सकती हैं। इसके अलावा उनकी शारीरिक फिटनेस और मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ सकता है। आज के दौर में जब तकनीक हर जगह हावी है, बच्चों को पूरी तरह से मोबाइल से दूर रखना संभव नहीं है। लेकिन इसे संतुलित तरीके से इस्तेमाल करना जरूरी है। मोबाइल के बढ़ते उपयोग ने न केवल बच्चों, बल्कि हर उम्र के लोगों के जीवन को प्रभावित किया है।
शोध में यह भी पाया गया कि हर वर्ग के लोग मोबाइल पर घंटों बिताते हैं, खासकर रील्स और वीडियो देखने में। यह आदत उनकी काम करने की दक्षता और मानसिक एकाग्रता को प्रभावित कर रही है। बच्चों को खेलकूद, पढ़ाई और सामाजिक गतिविधियों में शामिल करना न केवल उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, बल्कि इससे वे बेहतर इंसान भी बन सकते हैं। यह जरूरी है कि हम सभी इस समस्या को समझें और मिलकर इसका समाधान ढूंढें।
-देवेन्द्रराज सुथार
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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