दिखावे की दौड़ में मानसिक स्वास्थ्य की कीमत
नैतिक मूल्यों का क्षरण
आज के डिजिटल युग में, इंस्टाग्राम और टिकटॉक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर मौजूद छोटी वीडियो क्लिप्स, जिन्हें हम रील्स कहते हैं, ने भारतीय समाज पर गहरा और जटिल प्रभाव डाला है।
आज के डिजिटल युग में, इंस्टाग्राम और टिकटॉक जैसे प्लेटफॉर्म्स पर मौजूद छोटी वीडियो क्लिप्स, जिन्हें हम रील्स कहते हैं, ने भारतीय समाज पर गहरा और जटिल प्रभाव डाला है। मनोरंजन का साधन रहीं यह रील्स अब धीरे-धीरे हमारी सामाजिक जड़ों को खोखला कर रही हैं। यह सिर्फ वीडियो क्लिप्स नहीं, बल्कि एक नई आदत है, जिसने हमारे व्यवहार, सोच और रिश्तों को बदलना शुरू कर दिया है। रील्स हमारे समाज के पतन का एक बड़ा कारण बनती जा रही हैं, जिसके दूरगामी परिणाम हमारी कल्पना से कहीं अधिक गंभीर हो सकते हैं।
घटती एकाग्रता :
एक समय था, जब लोग किसी विषय पर गहन चिंतन करते थे, लेकिन रील्स के आने से यह सब बदल गया है। 15 से 60 सेकंड की ये वीडियो क्लिप्स हमारे मस्तिष्क को इतनी तीव्र गति से उत्तेजना देती हैं कि हमारा दिमाग अब किसी एक चीज पर ज्यादा देर तक टिक नहीं पाता। यह निरंतर विजÞुअल उत्तेजना हमारे दिमाग को तत्काल संतुष्टि का आदी बना देती है। नतीजतन, पढ़ाई, गंभीर बातचीत या कोई भी ऐसा काम जिसमें धैर्य और एकाग्रता की आवश्यकता होती है, हमें उबाऊ लगने लगता है। यह सतहीपन हमारी सोचने और समझने की शक्ति को कम कर रहा है।
नकारात्मक प्रभाव :
रील्स की दुनिया चमक-दमक से भरी है। हर कोई अपनी शानदार जिंदगी का प्रदर्शन कर रहा है। महंगी गाड़ियां, विदेश यात्राएं, ब्रांडेड कपड़े भले ही वे असल में वैसे न हों। जब हम इन रील्स को देखते हैं, तो अनजाने में अपनी जिंदगी की तुलना उनसे करने लगते हैं। यह तुलना एक गहरी जलन और हीन भावना को जन्म देती है। हम अपने सामान्य जीवन से असंतुष्ट होने लगते हैं और लगातार कुछ बड़ा और बेहतर पाने की दौड़ में शामिल हो जाते हैं। जब लाइक्स, शेयर ही सफलता का पैमाना बन जाएं, तो मेहनत और वास्तविक उपलब्धियों की अहमियत कम हो जाती है। युवा इस जाल में आसानी से फंस जाते हैं, यह मानते हुए कि सोशल मीडिया पर प्रसिद्धि ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है। इसका सीधा असर हमारे मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है।
नैतिक मूल्यों का क्षरण :
प्रसिद्धि पाने की अंधी दौड़ में, युवा अक्सर ऐसी हरकतें कर जाते हैं, जो न सिर्फ खतरनाक होती हैं, बल्कि हमारी संस्कृति और नैतिक मूल्यों के खिलाफ भी होती हैं। अश्लील भाषा, हिंसा को बढ़ावा देना या समाज के नियमों को तोड़ने वाले वीडियो आम हो गए हैं, और हैरानी की बात यह है कि इन्हीं पर सबसे ज्यादा व्यूज आते हैं। जब लोग गलत चीजों को देखकर उसे सही मानने लगते हैं, तो समाज में अनुशासनहीनता और अराजकता बढ़ती है। बच्चे और किशोर, जो इन रील्स को अपना आदर्श मानते हैं, वे आॅनलाइन देखे गए व्यवहार की नकल करते हैं, बिना यह समझे कि इसके वास्तविक जीवन में क्या परिणाम हो सकते हैं। जब समाज का युवा वर्ग अपनी संस्कृति और नैतिक मर्यादाओं से विमुख होने लगे, तो यह एक गंभीर खतरे की घंटी है।
रिश्तों में गिरावट :
आजकल परिवार के लोग एक साथ होते हुए भी अलग-अलग महसूस करते हैं। डाइनिंग टेबल पर हो या लिविंग रूम में, सब अपने-अपने फोन में रील्स देखने में व्यस्त रहते हैं। घर में बातचीत और हंसी-मजाक कम हो गया है। त्योहारों पर भी लोग उन पलों को जीने की बजाय, उसे रिकॉर्ड करके रील बनाने में लगे रहते हैं, ताकि वे उसे सोशल मीडिया पर अपलोड कर सकें। यह डिजिटल जुड़ाव हमें अपनों से दूर कर रहा है और रिश्तों में खालीपन ला रहा है। हम वर्चुअल दुनिया में तो जुड़े हैं, लेकिन असलियत में अकेले होते जा रहे हैं। पारिवारिक बंधन किसी भी समाज की नींव होते हैं।
करियर और भविष्य :
रील्स की चकाचौंध युवाओं को यह सोचने पर मजबूर कर रही है कि वे रातों-रात मशहूर होकर पैसा कमा सकते हैं। वे अपनी पढ़ाई, कौशल विकास और एक ठोस करियर पर ध्यान देने की बजाय, केवल रील्स बनाने में अपना समय और ऊर्जा बर्बाद कर रहे हैं। यह एक खोखला सपना है, जो अक्सर टूट जाता है और निराशा, हताशा और बेरोजगारी को जन्म देता है। कुछ मुट्ठी भर लोग शायद सफल हो जाएं, लेकिन अधिकांश युवा अपना बहुमूल्य समय एक ऐसे रास्ते पर बर्बाद कर देते हैं, जिसका कोई ठोस भविष्य नहीं होता। जब हमारी युवा शक्ति अनुत्पादक कामों में लगेगी, तो देश का विकास कैसे होगा। यह प्रवृत्ति हमारी दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता और सामाजिक प्रगति के लिए एक गंभीर खतरा है।
समाधान और रास्ता :
ऐसा नहीं है कि रील्स पूरी तरह से नकारात्मक हैं। यह रचनात्मकता और सूचना के आदान-प्रदान का एक शक्तिशाली माध्यम भी हो सकती हैं। समस्या उनके अंधाधुंध और अनियंत्रित उपयोग में है। हमें इस पतन को रोकने के लिए तुरंत और ठोस कदम उठाने होंगे। माता-पिता को अपने बच्चों के स्क्रीन टाइम पर लगाम लगानी होगी। उन्हें बच्चों को वास्तविक दुनिया की गतिविधियों, जैसे खेलकूद, किताबें पढ़ने और परिवार के साथ समय बिताने के लिए प्रेरित करना होगा और खुद भी एक अच्छा उदाहरण पेश करना होगा। हमें समझना होगा कि सच्ची खुशी और संतोष वास्तविक रिश्तों, कड़ी मेहनत और नैतिक मूल्यों में है। यदि हम इस पर ध्यान नहीं देंगे, तो रील्स की यह बाढ़ हमारे भारतीय समाज को ऐसे गहरे दलदल में धकेल सकती है, जहां से निकलना असंभव हो जाएगा।
-रंजना मिश्रा
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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