डिजिटल भीड़ में तन्हा इंसान

अकेलापन सबसे बड़ा दुश्मन 

डिजिटल भीड़ में तन्हा इंसान

दुनिया में इस वक्त हर घंटे 100 लोग मर रहे हैं।

दुनिया में इस वक्त हर घंटे 100 लोग मर रहे हैं। यह सौ लोग न तो किसी युद्ध में मारे जा रहे हैं, न किसी दुर्घटना में। न तो कोई बीमारी इन्हें लील रही है, न कोई प्राकृतिक आपदा। यह सौ लोग मर रहे हैं अकेलेपन से। जी हां, अकेलापन अब इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्ल्यूएचओ की जारी एक नई रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया की 17 प्रतिशत आबादी यानी हर छह में से एक व्यक्ति अकेलेपन का शिकार है। 2014 से 2023 के बीच अकेलेपन की वजह से सालाना 8 लाख 71 हजार लोगों की मौत हुई है। यह संख्या कई छोटे देशों की पूरी आबादी से भी ज्यादा है। सोचिए, कितनी विडंबना है कि इंसान ने चांद पर कदम रखा है, मंगल की मिट्टी की जांच कर रहा है, लेकिन अपने ही घर में, अपने ही दिल में पनप रहे अकेलेपन से हार रहा है।

एक मानसिक महामारी :

यह अकेलापन कोई साधारण समस्या नहीं है। यह एक मानसिक महामारी है, जो चुपचाप, बिना आवाज किए लाखों लोगों की जान ले रही है। जब कोई व्यक्ति अकेलेपन से घिरता है, तो उसका दिल सिकुड़ने लगता है, उसकी सांसें भारी होने लगती हैं और वह धीरे-धीरे मौत की तरफ बढ़ने लगता है। यह एक ऐसी मौत है, जिसमें न तो खून बहता है, न चीखें निकलती हैं, बस व्यक्ति चुपचाप अपने आप को खत्म होते देखता है। आज की तेज रफ्तार जिंदगी में हमने रिश्तों को दरकिनार कर दिया है। हम स्मार्टफोन से जुड़े हैं, लेकिन अपने परिवार से कटे हुए हैं। हमारे फेसबुक पर हजारों दोस्त हैं, लेकिन हकीकत में हमारा कोई सच्चा मित्र नहीं है। हमने घरों में दीवारें खड़ी कर ली हैं, लेकिन दिलों के बीच की दूरी और भी बढ़ा दी है। बूढ़े मां-बाप अकेले बैठे अपने बच्चों का इंतजार करते हैं और बच्चे अपनी व्यस्तताओं में इतने डूबे होते हैं कि उन्हें यह एहसास ही नहीं होता कि घर में कोई तड़प रहा है।

असल जिंदगी में अकेला :

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शहरीकरण की अंधी दौड़ में हमने अपनी जड़ों को छोड़ दिया है। गांव से शहर, शहर से महानगर की यात्रा में हमने अपने पुराने रिश्ते-नाते खो दिए हैं। आज का युवा ऊंची इमारतों के फ्लैट में रहता है, लेकिन उसे अपने पड़ोसी का नाम तक नहीं पता। वह डिजिटल दुनिया में हजारों लोगों से जुड़ा है, लेकिन असल जिंदगी में अकेला है। यह अकेलापन सिर्फ बुजुर्गों की समस्या नहीं है। यह युवाओं, बच्चों और हर उम्र के लोगों को प्रभावित कर रहा है। कॉलेज के छात्र अपने कमरों में बैठकर डिप्रेशन में जी रहे हैं। घर की महिलाएं चारदीवारी के बीच घुटन महसूस कर रही हैं। यहां तक कि भीड़ भरी जगहों में भी लोग अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं।

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बदलती जीवनशैली :

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इस समस्या की जड़ें हमारी बदलती जीवनशैली में छुपी हैं। हमने प्रगति के नाम पर इंसानियत को दरकिनार कर दिया है। हमने पैसा कमाने में खुद को इतना व्यस्त कर लिया है कि रिश्तों के लिए वक्त ही नहीं बचा। हमने सुविधाओं का जमावड़ा कर लिया है, लेकिन सुकून गंवा बैठे हैं। सबसे दुखद बात यह है कि अकेलेपन से मरने वाले लोग चुपचाप मर जाते हैं। उनकी कोई आवाज नहीं सुनाई देती, कोई विरोध नहीं होता। वे बस धीरे-धीरे अवसाद में डूबते जाते हैं और एक दिन इस दुनिया को छोड़ देते हैं। यह एक ऐसी त्रासदी है ,जिसका कोई शोर नहीं होता, कोई सुर्खियां नहीं बनतीं। लेकिन यह समस्या असाध्य नहीं है। इसका इलाज हमारे पास है। वह इलाज है-प्रेम, करुणा, और इंसानी रिश्तों को फिर से जिंदा करना। हमें अपने परिवार के साथ वक्त बिताना होगा, अपने दोस्तों से मिलना-जुलना होगा, और अपने पड़ोसियों से रिश्ता बनाना होगा। हमें समझना होगा कि तकनीक का इस्तेमाल रिश्तों को जोड़ने के लिए होना चाहिए, न कि तोड़ने के लिए।

हम सबकी जिम्मेदारी :

आज जरूरत है कि हम अपने आसपास देखें। कहीं कोई अकेला तो नहीं बैठा है, कहीं कोई मदद की गुहार तो नहीं लगा रहा है, थोड़ा सा प्रेम, थोड़ी सी देखभाल और थोड़ा सा समय यही तो चाहिए एक अकेले इंसान को। हमें समझना होगा कि इंसान एक सामाजिक प्राणी है और उसे प्रेम और स्रेह की उतनी ही जरूरत है, जितनी रोटी और पानी की। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बताती है कि हमारी प्राथमिकताएं गलत हैं। हम भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे भागते रहे हैं और अपनी आत्मा को भूल गए हैं। अब वक्त आ गया है कि हम अपनी राह बदलें, अपनी सोच बदलें और एक ऐसा समाज बनाएं जहां कोई भी व्यक्ति अकेला न रहे। अकेलेपन से लड़ाई सिर्फ सरकारों और संस्थाओं की जिम्मेदारी नहीं है। यह हम सबकी जिम्मेदारी है। हर व्यक्ति को अपने आसपास के लोगों की देखभाल करनी होगी। हमें एक ऐसा समाज बनाना होगा, जहां हर व्यक्ति को लगे कि वह महत्वपूर्ण है कि उसकी कोई परवाह करता है। अकेले व्यक्ति से बात करें, अपना वक्त दें, एहसास दिलाएं कि वह अकेला नहीं है। यही हमारी इंसानियत की असली परीक्षा है।

-देवेन्द्रराज सुथार
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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