माता-पिता की महत्वाकांक्षा और युवा पीढ़ी 

कोटा सिटी में प्रति वर्ष 15 से 20 बच्चे आत्महत्या कर रहे 

माता-पिता की महत्वाकांक्षा और युवा पीढ़ी 

आज युवा वर्ग में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृति बार-बार सोचने और समझने को मजबूर करती है।

आज युवा वर्ग में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृति बार-बार सोचने और समझने को मजबूर करती है कि वर्तमान में प्रगतिशील, शिक्षित, विकसित समाज की युवा शक्ति को आखिर क्या होता जा रहा है और क्यों होता जा रहा है कि वो प्रतिस्पर्धा में संघर्ष करने की बजाय पलायन वादी राह पर चल रही है। राजस्थान का कोचिंग हब कही जाने वाली कोटा सिटी में ही प्रति वर्ष 15 से 20 बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं और इस माह जनवरी से फरवरी के आधे माह तक सात बच्चों द्वारा आत्महत्या कर ली गई है, आत्महत्या की इतनी बड़ी संख्या  होना बड़ा ही दर्दनाक लगता है। आज जब इसका विश्लेषण किया जाता है तो कुछ बिंदु विचार करने योग्य प्रतीत होते हैं। एक तो सभी माता पिता की महत्वाकांक्षा होती है कि उनके बच्चे पढ़ लिख कर अपना भविष्य सुरक्षित बना लें  और यह कोई गलत महत्वकांक्षा नहीं है, जिसके चलते सभी माता पिता एक ही रास्ता अपनाते हैं जैसे बच्चों का बड़ी से बड़ी प्राइवेट स्कूल में एडमिशन, ज्यादा से ज्यादा ट्यूशन, कोचिंग और ढेर सारा पैसा लगाना। यहां माता पिता इसी तरीके को बच्चों की सफलता की सीढ़ी मान लेते हैं, जो कि संभव नहीं है।

दूसरा अधिकांशत: माता पिता ने अपने बच्चों को वर्तमान समय में सिर्फ  विज्ञान विषय दिलवाने और डॉक्टर, इंजीनियर बनाने को ही एकमात्र भविष्य का टारगेट बना रखा है, अन्य विषय जैसे कला, साहित्य या अन्य सेवाओं को हिकारत की नजर से स्वयं भी देखते हैं और समाज भी ऐसे विषयों और नौकरियों को कुछ कमतर ही आंकता हैं साथ ही विज्ञान विषय को अपने और अपने बच्चों के मान सम्मान से जोड़ कर बच्चों को इसे ही पढ़ने का अनावश्यक दबाव बना दिया जाता है। तीसरा बच्चों की स्वरुचि विषयों के चयन और भविष्य में उनकी स्वयं की क्या बनने की इच्छाओं से कोई लेना देना नहीं, वह स्वयं ही तय कर लेते हैं कि उन्हें बच्चों से क्या क्या करवाना है और आज कल तो बहुत ही जल्दी यानि 6 क्लास से ही उन्हें उस मशीन रूपी दुनिया का हिस्सा बना दिया जाता है, जो सारा दिन उन्हें टारगेट बेस्ड लाइफ  दे देती है, जिसमें फंसना किसी भंवरजाल में फंसने से कम नहीं होता। 

चौथा कोचिंग संस्थाओं के भ्रमित विज्ञापन जो सभी माता पिता को प्रेरित करते हैं कि बच्चों को दो तीन साल यहां पढ़ाने भर से और पैसे लगा देने से बच्चों की सफलता निश्चित है। वैसे यह एक असंभव प्रक्रिया है, लेकिन बच्चों के सुरक्षित भविष्य की चाह में वह अपने मासूम बच्चों की मासूमियत, बचपन और उनकी इच्छाओं के अनुसार जीवन जीने की बलि दे देते हैं। पांचवां मशीनी युग, संवेदनहीन समाज और एकल परिवार जहां मुश्किल से एक या दो ही बच्चे होते हैं, वहां बच्चों का सुरक्षित भविष्य सिर्फ  स्कूल, कॉलेज में  लाए गए मार्क्स, रैंक, सैलरी पैकेज में ही देखते हैं, जिसमें उलझ कर बच्चे और स्वयं माता पिता भी एक मशीन की तरह व्यवहार करने लगते हैं। अंतिम और गहरी बात यह है कि आज संवादहीन रिश्ते, एकाकी जीवन, संवेदना शून्य मानसिकता के साथ सिर्फ और सिर्फ भौतिकता और आर्थिक विकास को ही जीवन की सफलता मान लिया गया है। आज छोटे बच्चों को अपने से दूर दूसरे शहरों में हॉस्टल, पीजी भेज कर परिवार से अकेला तो कर ही देते हैं साथ ही उनसे संवाद भी सिर्फ  उनकी मार्क्स, रैंक, एग्जाम तक ही सीमित हो जाते हैं।

 ऐसे में बच्चे नई जगह, नए माहौल और माता पिता की महत्वाकांक्षाओं के बोझ में दबे हुए आंतरिक संघर्ष से जूझते रहते हैं, लेकिन किसी से भी साझा नहीं कर पाते हैं। अधिकांशत: 15  से 22 वर्ष के बीच वाले बच्चे जो इस समय अपने शारीरिक, मानसिक परिवर्तन से तो गुजर ही रहे होते हैं, ऐसे में वह अचानक अकेलेपन, संवादहीन वातावरण, मशीनी जीवन और टारगेट बेस्ड जीवन को भी फेस करने लगते हैं। अब उनकी दूसरी समस्याओं जैसे विज्ञान नहीं पढ़ना, प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाना, हॉस्टल में  एडजेस्ट नहीं हो पाना, अच्छे दोस्त नहीं बन पाना यह सुनने समझने को कोई तैयार नहीं रहता बार बार तनाव से घिर जाते हैं, उन्हें बाहरी दुनिया में अचानक धकेल दिए जाने के बाद वह हजारों तरह की समस्याओं के भंवर जाल में फंस कर महत्वाकांक्षाओं के बोझ में दब कर अकेले पन से घबरा कर अंत में किसी से भी संवाद किए बिना  समस्याओं को साझा किए बिना अपनी जीवन लीला को ही समाप्त कर लेते हैं। माता-पिता, टीचर सभी उसकी आंतरिक परेशानियों की वजह ढूंढते रह जाते हैं, लेकिन जबाव नहीं पाते है। अंत में सभी माता पिता से बस इतना सा ही आग्रह है की एक बार बस बच्चों की स्वयं की खुशी, इच्छाओं, काबिलियत और जरूरतों को भी तवज्जों दें, क्या पता इसी में समस्याओं का समाधान मिल जाए।

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यह लेखक के अपने विचार हैं।

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