वृद्धजन परिवार के बोझ नहीं, आधार हैं

वृद्धजन परिवार के बोझ नहीं, आधार हैं

अपनी वृद्धावस्था और अशक्तता के कारण वे इस अन्याय को चुपचाप बर्दाश्त करने को मजबूर जीये जा रहे हैं। इनके लिए आवाज उठाने वाली कोई संस्था वा व्यक्ति क्यों नहीं आगे आ रहे हैं?

लो आ गया एक और वृद्धजन दिवस, हर वर्ष की तरह फिर परंपरागत रूप से समारोह और कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे और वृद्धजनों को बुलाकर फूलों, मालाओं से लाद दिया जाएगा। उनके लिए बड़ी-बड़ी बातें एवं घोषणाएं की जाएंगी। बस इसके बाद फिर वही ढर्रा चलता रहेगा, लेकिन हकीकत में भारतीय समाज में कम से कम यह तो देखा जा रहा है कि आम परिवारों में वृद्धों को वह सम्मान और सामान्य जीवन की सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं, जो उन्हें मिलना चाहिए, यह उनका अधिकार भी हैं। अपनी वृद्धावस्था और अशक्तता के कारण वे इस अन्याय को चुपचाप बर्दाश्त करने को मजबूर जीये जा रहे हैं। इनके लिए आवाज उठाने वाली कोई संस्था वा व्यक्ति क्यों नहीं आगे आ रहे हैं? यह भी एक ताज्जुब का विषय हैं।आज साधारणत: संयुक्त परिवार बिखरते चले जा रहे हैं, आज की पीढ़ी जहां अपने पैरों में खड़ी होती हैं और विवाह होने के बाद मां-बाप से अलग होने की फिराक में लगे रहते हैं। उनसे अगर कुछ मिलने की उम्मीद रहती हैं या वे कुछ अर्थोपार्जन में लगे हैं, तब तब उनकी पूछ परख ठीक तरह से होती हैं। लेकिन जब वे अपनी वृद्धावस्था या अशक्तता के कारण कार्य (अर्थोपार्जन) से रिटायर्ड हो जाते हैं। तभी से उनकी उपेक्षा घर में शुरु हो जाती हैं। आज सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों में तेजी से बदल रहे प्रतिमानों के कारण परिवार उतनी ही तेजी से विघटन की ओर अग्रसर हो रहे हैं। महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता वही पुरुषों का इगो जब टकराता है तो परिवारों को अस्थिर होने में जरा भी समय नहीं लगता। भारतीय परिवार की इस टूटन भरी त्रासदी के बीच वृद्ध अब दो पाटों में गेंहू के समान पीसे जाने को मजबूर हो गए हैं।
आज वृद्धजनों को अब वह सम्मानजनक स्थान नहीं मिल पा रहा, जो उन्हें पहले मिलता था। वृद्धावस्था के मायने हैं शक्तिहीन, जर्जर काया और शिथिल मन। शायद इसी कारण प्राचीन शास्त्रों में कहा गया था कि जब मनुष्य यह देखे कि उसके शरीर के बाल पक गए हैं पुत्र के भी पुत्र या पुत्री हो गए हैं, तब उसे सांसारिक सुखों को  छोड़कर वन का आश्रय ले लेना चाहिए। क्योंकि वहीं वह अपने को मोक्ष प्राप्ति के लिए तैयार कर सकता है। आज के परिवेश में अब वह व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती। 

इसलिए मजबूरन वृद्धों ने अपने आपको पारिवारिक जीवन में ही खपा लिया है। इसीलिए अब शायद उनके सम्मान में कमी आ गई हैं एकाकीपन, सामाजिक असुरक्षा उन्हें व्यथित कर रही हैं आज समूचा संसार वर्ष 2023 को विश्व वृद्धजन वर्ष के रुप में मना रहा हैं और उनकी संतानें अर्थात युवाजनों द्वारा वृद्धों की उपेक्षा, मानसिक कष्ट दिए जाने की घटनाएं आम हो चली हैं। वृद्धजन जो उम्र भर बैल के समान परिवार की गाड़ी को अपने कंधों पर खींचता है। अपने संतानों को पाल पोसकर उसे शिक्षा दीक्षा देकर बड़ा करता है। और जब उसके थकेहारे उम्रदराज हो चुके शरीर को सहारे की आवश्यकता पड़ती है तो उनकी एहसान फरामोश संताने उन्हें अपना बोझ समझकर ठुकराने पर तुल उठती है। यही कारण है कि अब वृद्धों के लिए वृद्धावस्था अभिशाप बन गई हैं उनकी संतानें ये क्यों भूल जाती हैं कि आज वे, जो वृद्ध हैं कभी वेल अपना बचपन उन्हीं के सहारे गुजारे हैं, अब जब वे अकेले और निशक्त हैं उन्हें जरुरत है सहारे की वैसे भी वृद्धों को उचित सहारे देखभाल की आवश्यकता होती हैं। पर वर्तमान पीढ़ी परिवार के वृद्धों को बोझ मानकर उनके उचित देखभाल के दायित्व को नकार देती हैं। जिससे वृद्धों को कष्टकर जीवन बिताने के लिए विवश होना पड़ता हैं। आज का युवा वर्ग वृद्धों को पिछड़पने की निशानी समझती हैं। और उनकी तथा उनके समस्याओं को अनदेखा करती हैं। गरीब तथा ग्रामीण परिवेश के वृद्धों की हालत तो और भी खराब है। उन्हें तो दो जून की रोटी या सर छिपाने के लिए घर भी नसीब नहीं होता। उनके घर वाले उन्हें मारे-मारे फिरने तथा वृद्धाश्रमों में शरण लेने के लिए मजबूर कर देते हैं।

अब जरूरत है कि समाज, परिवार तथा सरकार वृद्धों के कल्याण के लिए कुछ ठोस कदम उठाए। सभी का नैतिक दायित्व बनता है कि वृद्धजनों के प्रति स्वस्थ्य तथा सकारात्मक दृष्टिकोण रखें। सरकार को भी चाहिए कि वृद्धों को सामाजिक सुरक्षा दिलाने की व्यवस्था बनाएं। उनके स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के लिए निशुल्क चिकित्सा व्यवस्था की शुरुआत करनी चाहिए। सार्वजनिक यातायात में वृद्धों को छूट मिलनी चाहिए। राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना में सुधार करना होगा एवं वृद्धों को समुचित पेंशन दी जानी चाहिए। उनके लिए आजीवन के लिए साधन भी उपलब्ध कराना होगा। यह सामाजिक संगठनों का उत्तरदायित्व हैं। आज की पीढ़ी अगर इसी तरह वृद्धों को अनादर, उपेक्षा और उनके जीवन में रोड़ा बिछायेंगें तो यह उन्हें अच्छी तरह से समझ लेना होगा कि आने वाले भविष्य के दिनों में वे स्वयं भी वृद्ध अवश्य ही होंगे। तब स्वयं उनकी संतानें भी परंपरानुसार उनके ही पद चिन्हों पर ही चलेगी। इसमें कोई दो मत नहीं हैं। तब क्या होगा...? अगर यह सब सोच लो तो वृद्धों की समस्या ही खत्म हो जाएं।  

-सुरेश सिंह बैस शाश्वत

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