पांच सौ साल पुरानी लोक संस्कृति है सांगोद का न्हाण, फूहड़ता की होती बौछार
कोटा की कोड़ा मार व हाथियों पर बैठकर खेली जाने वाली होली नहीं भूले लोग
कोटा। कोटा में रंगों-उमंगों का त्यौहार होली और उसके अगले दिन धुलेंडी का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन रियासतकाल में कोटा में हाथियों की होली यहां के लोगों के मनोरंजन का सबसे बड़ा जरिया हुआ करती थी। कोटा के महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय एवं उनका समय में रियासतकाल में कोटा के राजपरिवार ओर से आयोजित होने वाली हाथियों की होली का आनंद अलग ही हुआ करता था। कोटा संभाग में सांगोद में न्हाण की अपनी अनूठी परंपरा है। इसके गवाह एक लाख से भी अधिक लोग बनते हैं। कोटा ही नहीं दूर दराज से भी लोग सांगोद के न्हाण को देखने के लिए पहुंचते हैं। लोक संस्कृति का यह विशेष आयोजन आज भी उसी शान और शौकत के साथ परवान पर चढ़ता जा रहा है। सांगोद का न्हाण लोकोत्सव की शुरुआत फाल्गुन माह की तीज से सप्तमी तक चलता है। वहीं कोटा की कोड़ामार होली आज खेली जाती है। कोटा की होली बुजुर्गो की जुबानी।
जीवंत खेल है न्हाण
वरिष्ठ साहित्यकार अंबिकादत्त चतुवेर्दी ने बताया कि हाड़ौती अंचल होली और होली के बाद न्हाण व नावडा प्रमुखता से मनाया जाता है। न्हाण मतलब होता रंगो से नहाना। हाड़ौती में कुछ जगह पंचमी का न्हाण होता है कुछ जगह तेरह का न्हाण होता है। प्रमुख लोकोत्सव में शुमार सांगोद का न्हाण जीवंत खेल है। न्हाण अवर्णनीय लोकोत्सव है। इसका जीवंत दर्शन करके ही आभास कर सकते है। यूं कहे कि जो देश-दुनिया में जो घटित हो रहा है। वह सब कुछ यहां देखने को मिलता है। सांगोद का न्हाण पांच दिवसीय लोकोत्सव है। जो पांच दिन तक चलता है। धुलंडी के दूसरे दिन से यह शुरू होता है। यहां दो दल है। एक दल बाजार जिसे चौधरी पाडा व दूसरे वाला खाडे वाला है उसे चौबे पाडा वाला दल होता है। यह बहुत सुंदर उत्सव है। दोज से गुगरी शुरू होती है। तीन और चौथ को चौधरी पाडे का जुलूस निकलता है। पंचमी को पडत रहती है। इसमें मुख्य रूप से गुगरी, बारह भालो की सवारी, रात का न्हाण होता है। दूसरे दिन सुबह जल्दी भवानी की सवारियां निकलती है। दिन में निकलती बादशाह की सवारी रात में सजता है बादशाह का दरबार इतने कार्यक्रम होने के बाद एक दल का न्हाण कार्यक्रम पूरा होता है। फिर यही कार्यक्रम दूसरे दल द्वारा किया जाता है।
होलिका दहन के चौथे दिन भी खेली जाती थी होली
बुर्जुग उषा देवी ने बताया कि होलिका दहन के चौथे दिन चैत्र कृष्ण चतुर्थी पर भी कोटा में रियासतकाल में होली खेली जाती थी। महाराव उम्मेद सिंह गढ़ पैलेस से हाथी पर सवार होकर पूरे लवाजमे के साथ जनता-जनार्दन से होली खेलने के लिए जाते थे। सांगोद की न्हाण देखने का आनंद ही कुछ ओर से पांच साल की परंपरा आज भी जीवंत है। यहां हाड़ौती की लोक संस्कृति की झलक देखने को मिलती है।
होली के दो दिन पहले ही हो जाती थी तैयारियां
बुर्जुग ताराचंद ने बताया कि एक दशक पहले शहर के कई इलाकों में कोड़ामार होली की रंगत बिखरती थी। एक ओर महिलाएं कोड़े बरसाती, दूसरी ओर पुरुष डोलचियों से पानी उढ़ेलते। होली का अलग ही आनंद बरसता। इसके लिए एक-दो दिन पूर्व ही तैयारी कर लेते। महिलाएं कपड़े में चुभने वाले कंकर रखकर गांठ बांधकर कोड़े तैयार करती। जगह-जगह पलाश के फूलों का पानी भरा जाता था। एक दो दिन पहले फूलों को पानी में गला दिया जाता। इससे तैयार रंगों को पानी में घोला जाता और खेळों मेंं भरवाया जाता। फिर होली पर्व पर पानी की बौछार के साथ रंग बिखरते। प्रकृति के रंगों से होली खेलते। खास बात यह कि कोड़ों की मार झेलने के बाद मन में कोई द्वेष नही रहता, बल्कि मार के संग होली की खुमारी और चढ़ती जाती थी।
कोटा दरबार जनता के साथ खेलते थे होली
रविंद्र मेवाड़ा ने बताया कि हमारे बुर्जुग बताते थे कि दरबार उम्मेद सिंह पहले जनाना महल में पहले महारानियों के संग होली खेलते। फिर जलेब चौक में भाई, बंधु, उमराव,जागीदारों के साथ। इसके बाद वे हाथी पर सवार होकर लोगों के बीच होली खेलने के लिए निकलते। रामपुरा डाकखाना से वे हाथी से उतरकर कार या बग्घी में सवार होकर कोठी चले जाते थे। शाम को बृजविलास बाग में पातिया व दरीखाना होता था। इसमें इनाम दिए जाते। यहां के शासक घोड़े पर सवार होकर जनता के साथ होली खेलने की भी परम्परा रही है। यहां की हाथियों पर बैठकर होली अलग इतिहास है।
बसंत पंचमी से शुरू हो जाता था रंगोत्सव
बुर्जुग संतोष गुर्जर ने बताया कि गढ़ स्थित रियासत कालीन भगवान बृजनाथ जी के मंदिर में वह कोटा रियासत के अन्य वल्लभ कुलों के मंदिर में बसंत पंचमी से ही रंग गुलाल उड़ने लगते थे और फागुन के गीत ठाकुर जी के मंदिरों में गाए और बजाये जाने लगते थे कोटा के महारावो द्वारा यह पर्व सार्वजनिक रूप से मनाने की परंपरा रही है महाराव स्वयं शहर के नागरिकों के साथ होली खेलकर इस पर्व को मनाया करते थे । उसका आज भी निर्वाहन हो रहा है।
गढ पैलेस के राजपुरोहित आशुतोष दाधीच ने बताया कि कोटा के छठे शासक महारावभीम सिंह ी प्रथम (1707-1720) ने जब आचार्य गोपीनाथ जी से वल्लभ कुल की दीक्षा ली और भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त और अनुयाई हो गए उन्होंने रियासत कोटा का नाम बदलकर नंदग्राम कर दिया तब से रियासत कोटा में भगवान श्री कृष्ण से संबंधित सभी पर्व बड़े उत्साह पूर्वक बनाए जाने लगे कृष्ण जन्माष्टमी के साथ ही होली का पर्व भी यहां वल्लभ कुल की परंपराओं के अनुसार बसंत पंचमी से ही प्रारंभ होकर फूल डाल तक निरंतर चलता था गढ़ स्थित रियासत कालीन भगवान बृजनाथ जी के मंदिर में वह कोटा रियासत के अन्य वल्लभ कुलों के मंदिर में बसंत पंचमी से ही रंग गुलाल उड़ने लगते थे और फागुन के गीत ठाकुर जी के मंदिरों में गाए और बजाये जाने लगते थे कोटा के महारावो द्वारा यह पर्व सार्वजनिक रूप से मनाने की परंपरा रही है।

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