सुप्रीम कोर्ट सख्त, छात्रों की सुरक्षा जरूरी

संस्थानों की जिम्मेदारी 

सुप्रीम कोर्ट सख्त, छात्रों की सुरक्षा जरूरी

देश में छात्रों की खुदकुशी बहुत ही चिंताजनक है।

देश में छात्रों की खुदकुशी बहुत ही चिंताजनक है। इस संदर्भ में हाल ही में हमारे देश के माननीय सुप्रीम कोर्ट ने स्वत संज्ञान लिया है। दरअसल, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने ग्रेटर नोएडा में छात्रों की आत्महत्या के मामले में गंभीर सवाल उठाए हैं। कहना गलत नहीं होगा कि माननीय सुप्रीम कोर्ट का छात्रों की आत्महत्या पर सख्त होना सही ही है, क्यों कि प्रबंधन, लापरवाही का परिचय दे रहे हैं और छात्रों के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य, उनकी समस्याओं, सुरक्षा की ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहे हैं। वास्तव में छात्रों की सुरक्षा, खासकर उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, संस्थानों की पहली नैतिक जिम्मेदारी और कर्तव्य होना चाहिए।

संवेदनशील विषय है :

वास्तव में, यह गंभीर चिंता का एवं संवेदनशील विषय है कि आज देशभर में अनेक संस्थान छात्र-छात्राओं के मानसिक स्वास्थ्य के लिए न तो कोई नीतियां ही बनातें हैं और न ही इन्हें ठीक प्रकार से लागू ही करते हैं। शैक्षणिक संस्थानों यह चाहिए कि वे छात्र-छात्राओं के मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक समान नीति बनाएं,उस नीति की समय-समय पर समीक्षा करें,उसे अद्यतन करें, इसे संस्थान की वेबसाइट और नोटिस बोर्ड पर सार्वजनिक एवं अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराएं। छात्र-छात्राओं की अधिक संख्या वाले संस्थानों को यह चाहिए कि वे अपने यहां प्रशिक्षित काउंसलर,मनोवैज्ञानिक या सोशल वर्कर की नियुक्ति अनिवार्य करें, ताकि बच्चों की समय-समय पर काउंसलिंग की जा सके और समय रहते समाधान किया जा सके।

मार्गदर्शन और सहायता :

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छात्र-छात्राओं की कम संख्या वाले संस्थानों में रिलायबल तथा ट्रेंड आउटर मेंटल हेल्थ स्पेशलिस्ट से औपचारिक रूप से सहयोग लिया जा सकता है और छात्र-छात्राओं को मार्गदर्शन और सहायता प्रदान की जा सकती है। कोचिंग संस्थानों समेत सभी शैक्षणिक संस्थानों से कहा है कि वे छात्रों को मेरिट के आधार पर बैच में न बांटें, क्यों कि ऐसा करने से छात्रों में शर्मिंदगी और मानसिक दबाव पैदा होता है। संस्थानों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके यहां कार्यरत सभी स्टाफ सदस्यों को वंचित और हाशिए पर खड़े छात्रों के साथ संवेदनशील, समावेशी और भेदभाव रहित व्यवहार करने के लिए प्रशिक्षित हों। सभी शिक्षण संस्थानों में उत्पीड़न, रैगिंग और जाति, वर्ग, लिंग, दिव्यांगता, धर्म या जातीयता के आधार पर होने वाली बदसलूकी की शिकायतों के लिए एक मजबूत,गोपनीय और सुलभ शिकायत व निवारण तंत्र बनाया जाना आवश्यक है।

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संस्थानों की जिम्मेदारी :

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शिकायतों पर त्वरित कार्रवाई के लिए एक आंतरिक समिति भी संस्थानों में होनी चाहिए। इतना ही नहीं, कमजोर और वंचित पृष्ठभूमि के छात्रों के साथ संवेदनशीलता से व्यवहार किया जाना चाहिए। दिशा-निर्देशों में यह भी साफ कहा गया है कि छात्रों की सुरक्षा, खासकर उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, संस्थानों की पहली जिम्मेदारी होनी चाहिए। अगर किसी मामले में समय पर या पर्याप्त कार्रवाई नहीं की गई और इससे छात्र आत्महानि या आत्महत्या जैसा कदम उठाता है, तो यह संस्थान की लापरवाही मानी जाएगी और प्रशासन पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। आज हमारे देश में अनेक कोचिंग संस्थान मौजूद हैं, जहां हर वर्ष हजारों लाखों की संख्या में छात्र-छात्राएं नीट, बैंकिंग, आईआईटी जेईई मेन्स और एडवांस के साथ ही साथ अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं।

सभी शिक्षण संस्थान :

इन कोचिंग संस्थानों में छात्र-छात्राओं की मेंटल हेल्थ की सुरक्षा बहुत ही आवश्यक और जरूरी है, क्यों कि कोचिंग संस्थानों में तैयारी करते समय घर से दूर रहने की स्थिति में इन छात्र-छात्राओं को अनेक प्रकार की समस्याओं से गुजरना पड़ता है। पढ़ाई का अच्छा खासा दबाव छात्र-छात्राओं पर रहता है। ऐसे में जरुरत इस बात की है कि इन कोचिंग संस्थानों में छात्र-छात्राओं की मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा और रोकथाम के विशेष उपाय लागू किए जाएं। माननीय सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए जो अहम दिशा-निर्देश जारी किए हैं, ये दिशा-निर्देश देश के सभी शिक्षण संस्थानों पर लागू होंगे, चाहे वे सरकारी हों या निजी, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, ट्रेनिंग सेंटर, कोचिंग संस्थान,रेजिडेंशियल एकेडमी या छात्रावास उनकी मान्यता या संबद्धता चाहे जो भी हो।

शैक्षणिक और सामाजिक :

छात्रों की आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण शैक्षणिक और सामाजिक-पारिवारिक तनाव व दवाब के साथ-साथ कॉलेजों या संस्थाओं से मदद ना मिलना और जागरूकता का अभाव है। बच्चों के बीच पढ़ाई में लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा,अंकों की होड़ और बच्चों से माता-पिता/अभिभावकों की बहुत सी अपेक्षाएं भी सुसाइड का प्रमुख कारण बन रहीं हैं। यह विडंबना ही है कि छात्रों की मेंटल हेल्थ को लेकर न तो परिवार, ही गंभीर होते हैं, न ही शिक्षण संस्थान। हताश, तनावग्रस्त व अवसाद वालों को मनोवैज्ञानिक मदद के सहारे काफी हद तक उबारा जा सकता है। सारा काम सरकार नहीं कर सकती है। जिम्मेदारी सरकार के साथ ही साथ हमारी स्वयं की, अधिकारियों की, प्रशासन की तथा संस्थानों की भी है। छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य, काउंसलिंग, शिकायत निवारण और संस्थागत जवाबदेही पर हम सभी को सामूहिकता के साथ काम करना होगा।

-सुनील कुमार महला
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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