वेद स्वयं काव्यरूप, उनमें काव्य का सम्पूर्ण सौन्दर्य समाहित : संजय झाला
काव्य की प्रयोजन-ग्रहनीयता और महत्ता
देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति’ के वैदिक वचन में देव के काव्य के रूप में वेद का ही निर्देश किया गया है।
जयपुर। ‘देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति’ के वैदिक वचन में देव के काव्य के रूप में वेद का ही निर्देश किया गया है और वेद के निर्माता परमात्मा के लिए वेदों मेंअनेक जगह ‘कवि’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसलिए वेद स्वयं काव्यरूप हैं और उनमें काव्य का सम्पूर्ण सौन्दर्य पाया जाता है। इसलिए साहित्यशास्त्र में काव्य सौन्दर्य के आधायक जिन गुण, रीति, ध्वनि आदि तत्त्वों का विवेचन किया गया है, वे सभी तत्व मूल रूप में वेद में पाए जाते हैं। ये कहना है फूड डिपार्टमेंट में डिप्टी डायरेक्टर और कवि संजय झाला का।
काव्य की प्रयोजन-ग्रहनीयता और महत्ता : संजय झाला ने कहा कि काव्य की ग्रहनीयता को अग्नि पुराण में भी कहा गया है। लोक में मनुष्य होना दुर्लभ है, मनुष्य होने पर भी विद्या अत्यंत दुर्लभ है, विद्या के होने पर भी कवि होना दुर्लभ है और कवि होने पर शक्ति अर्थात प्रतिभा अत्यंत दुर्लभ है। यहां प्रतिभा से आशय निश्चित रूप से काव्य के प्रेषण, संप्रेषण, रोचकता और उसकी प्रभावोत्पादकता तथा गुण-अवगुण की अभिव्यक्ति से ही है।
कविता का वैश्विक प्रसार-प्रसारण : झाला ने कहा कि 1983 में नव वर्ष के कार्यक्रम में सर्वप्रथम सुरेंद्र शर्मा की हास्य की लोकप्रिय कविता कालू का प्रसारण हुआ। 1984 में दूरदर्शन द्वारा कुबेर दत्त जी के निर्देशन में प्रथम आधिकारिक कवि सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें 22 कवि सम्मिलित हुए। इसके संचालक अशोक चक्रधर और अध्यक्षता गोपाल प्रसाद व्यास ने की थी। 1988-89 में भारत का पहला लाफ्टर-शो दूरदर्शन ने प्रारंभ किया। जिसका नाम था ‘कहकहे’। जिसमें कवि और स्टैंड अप कॉमेडियन दोनों को सम्मिलित किया गया। इसके प्रोड्यूसर शरद दत्त थे और इसमें प्रश्नों के उत्तर शरद जोशी दिया करते थे।
कवियों को कुर्ते-पाजामे से इन्द्रधनुषी रंगत वाले लिबासों और मेकअप से किया फैशनेबल : संजय झाला ने कहा कि कवि सम्मेलनों के वर्तमान और उसके स्वरूप को परिवर्तित-परिवर्धित और परिष्कृत करने का श्रेय जाता है प्रख्यात कवि, अभिनेता और मोटिवेशनल स्पीकर शैलेश लोढ़ा को। जिसने विभिन्न टीवी चैनल, शोज के माध्यम से कविता को इंडिविजुअल से यूनिवर्सल, ग्लोबल और नोबल बना दिया। कवि और कविता को मार्केबल-रिमार्केबल, प्रेजेंटेबल बनाया और कवियों को कुर्ते-पाजामे से इंद्रधनुषी रंगत वाले लिबासों और मेकअप से फैशनेबल किया। कविता पगडंडियों से राजमार्गों पर, कस्बों से कॉरपोरेट घरानों तक आईं। कवि बसों से एयरबसों तक और रोडवेज से एयरवेज तक आई। कवि-कविता और कवि सम्मेलनों की एक नई परिभाषा गढ़ी गई। वेद को ‘देवों का अमर काव्य’ कहा गया है। ‘देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति’ के वैदिक वचन में देव के काव्य के रूप में वेद का ही निर्देश किया गया है और वेद के निर्माता परमात्मा के लिए वेदों में अनेक जगह ‘कवि’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसलिए वेद स्वयं काव्यरूप है और उसमें काव्य का सम्पूर्ण सौन्दर्य पाया जाता है।
नाट्य और काव्य में समानता :
झाला का कहना है कि देवासुर संग्राम में लड़ते-लड़ते देवता और असुर बुरी तरह थक गए थे। उनके प्रतिनिधि प्रजापति ब्रह्मा के पास गए और अपनी स्थिति का वर्णन किया। साथ ही उनसे प्रार्थना की कि कोई ऐसी विधि खोजी जाए जिससे जीवन की उदासी दूर भागे और मन में प्रसन्नता का संचार हो तो ब्रह्मा जी ने सोच-समझकर नाट्य वेद का आविष्कार किया। इसके साथ ही कविता का भी यह उद्देश्य है कि वह थके मांदे मन में ऊर्जा का संचार करे। नाटक और कविता भिन्न-भिन्न रुचि के लोगों के लिए संपूर्ण रूप से समर्थन करने वाली होती है। नाटक के लिए कालिदास ने कहा ‘नाट्यम भिन्न रुचेर्जनस्य बुधाप्येकम समाधनं’ नाटक और काव्य सामान्य जन का तो मनोरंजन करता ही है पर समझदार विद्वानों को संतुष्ट न करे, तब तक उसकी कलात्मकता से प्रयोग करने वाले को संतोष नहीं होताा।
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