धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा का स्वप्नन्यायपूर्ण और समतावादी समाज का संकल्प
भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती पर जनजाति गौरव वर्ष का संकल्प
भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती पर राजस्थान में जनजाति गौरव वर्ष मनाया जा रहा है। अतिरिक्त मुख्य सचिव कुंजीलाल मीणा ने कहा कि बिरसा मुंडा के जल-जंगल-जमीन और स्वशासन के सिद्धांत आज भी प्रेरणा हैं। राज्यभर में आदिवासी उत्थान के विविध कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे।
दिल्ली। राष्ट्र उस महान विभूति को नमन कर रहा है, जिनके संक्षिप्त जीवन ने पराधीन भारत के सबसे शोषित वर्ग-आदिवासी समुदाय को एक नई दिशा प्रदान की। 15 नवम्बर को हम भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती को केंद्र सरकार द्वारा घोषित जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मना रहे हैं। इस अवसर पर मैं राजस्थान की पावन धरा से धरती आबा के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ, जिन्होंने हमें सिखाया कि न्याय, स्वाभिमान और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष ही मानव जीवन का सर्वोच्च धर्म है। बिरसा मुंडा का जीवनकाल (1875-1900) भले ही छोटा रहा हो किंतु उनका संघर्ष उलगुलान (महान विप्लव) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में प्रतिरोध, साहस और स्वायत्तता की एक अमर गाथा है। उन्होंने केवल ब्रिटिश राज या शोषणकारी जमींदारी व्यवस्था का विरोध नहीं किया बल्कि उन्होंने एक ऐसा समग्र आंदोलन खड़ा किया जो सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक तीनों मोर्चों पर एक साथ लड़ा गया।
जीवन से विद्रोह तकउलगुलान की पृष्ठभूमि
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी के उलिहातू गांव में हुआ था। एक गरीब मुंडा परिवार में जन्मे बिरसा ने बचपन से ही गरीबी और अभाव को करीब से देखा। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मिशनरी स्कूल में हुई, जहां उन्हें ईसाई धर्म अपनाने पर मजबूर किया गया था लेकिन जल्द ही उन्होंने महसूस किया कि ये मिशनरी गतिविधियां भी ब्रिटिश शासन की शोषणकारी नीतियों का ही एक विस्तारित रूप हैं, जो आदिवासियों की पारंपरिक आस्था और सांस्कृतिक पहचान पर हमला कर रही थी। यहीं से उनके मन में साहूकारों, जमींदारों और ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह की भावना ने जन्म लिया।
विद्रोह के मूल कारण: चतुर्दिक शोषण
19वीं सदी के अंत तक छोटानागपुर पठार क्षेत्र में आदिवासियों का शोषण चरम पर था। बिरसा मुंडा के उलगुलान के पीछे चार मुख्य कारण थे जो आज भी भूमि और पर्यावरण आंदोलनों की जड़ में हैं।
भूमि नीतियां : ब्रिटिश सरकार की नई भूमि नीतियों ने आदिवासियों की पारंपरिक खुंटकट्टी सामुदायिक स्वामित्व कृषि प्रणाली को ध्वस्त कर दिया। उनकी जमीन छीनकर बाहरी लोगों दिकु को दी जा रही थी।
सामंती जमींदारी प्रथा : सरकार ने सामंती जमींदारी और राजस्व प्रणाली थोप दी जिससे आदिवासी किसान अपनी ही जमीन पर बेगारी करने पर मजबूर हो गए।
वन नीति : नई वन नीतियों ने जंगल पर आदिवासियों के सदियों पुराने पारंपरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया। उनके लिए जंगल केवल आजीविका का साधन नहीं, बल्कि उनकी संस्कृति और जीवन का आधार था, जल-जंगल-जमीन की त्रिवेणी के प्रति अटूट श्रद्धा इसका मूल आधार रहा है। धार्मिक और सांस्कृतिक हस्तक्षेप ईसाई मिशनरियों द्वारा जबरन धर्मांतरण ने आदिवासियों की मूल आस्था और मान्यताओं पर सीधा प्रहार किया। बिरसा ने इन शोषण एवं अत्याचारों का प्रतिरोध कर आदिवासियों को अपने अधिकारों एवं सांस्कृतिक धरोहर के प्रति जाग्रत किया।
धार्मिक और सामाजिक सुधारक
बिरसा मुंडा केवल राजनीतिक विद्रोही नहीं थे, बल्कि एक प्रखर धार्मिक और सामाजिक सुधारक भी थे। सन् 1895 में उन्होंने बिरसाईतश नामक एक नए एकेश्वरवादी धर्म की भी स्थापना की थी। इस धर्म का उद्देश्य आदिवासी समाज का सांस्कृतिक पुनरुत्थान और पहचान का संरक्षण था। उन्होंने खुद को भगवान का दूत घोषित किया और मुंडा समुदाय को अंधविश्वासों, जादू-टोना, हिंसा और सबसे महत्वपूर्ण, शराब, मादक द्रव्यों के सेवन से दूर रहने की सलाह दी। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि समाज को भीतर से मजबूत और शुद्ध होना चाहिए। उनका यह सुधारवादी दृष्टिकोण उनके राजनीतिक आंदोलन की नींव बना। एक संगठित और नैतिक समाज ही अत्याचारी शासन का प्रभावी ढंग से मुकाबला कर सकता है की भावना उनमे कूट-कूट कर भरी हुई थी ।
बिरसा का राजनीतिक आह्वान :अबुआ राज
एक युवा नेता के रूप में उन्होंने सभी मुंडाओं को एकजुट किया और 1 अक्टूबरए 1894 को अंग्रेजों से लगान माफी के लिए आंदोलन किया। उनका सबसे प्रसिद्ध नारा था अबुआ दिसुम अबुआ राज, हमारा देश हमारा राज। यह सिर्फ राजनीतिक नारा नहीं था, बल्कि यह आदिवासी स्वायत्तता, स्वतंत्रता और स्वशासन की एक प्रबल उद्घोषणा थी। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने गुरिल्ला शैली की विद्रोही सेना का गठन किया और नए नारे के साथ फिर से आंदोलन शुरू किया, अबुआ राज से जाना, महारानी राज टुंडू जाना, हमारा राज्य स्थापित हो और महारानी का राज्य समाप्त हो। यह आंदोलन 9 जून, 1900 को रांची जेल में उनकी शहादत तक चला। उनकी मृत्यु रहस्यमय परिस्थितियों में मात्र 25 वर्ष की आयु में हुई किंतु उनका संघर्ष व्यर्थ नहीं गया।
बिरसा की सबसे बड़ी उपलब्धि, सीएनटी अधिनियम, 1908
बिरसा आंदोलन की सबसे बड़ी और स्थायी उपलब्धि उनकी शहादत के आठ साल बाद सामने आई। उनके उलगुलान के दबाव में ब्रिटिश सरकार को 11 नवंबर 1908 को छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम, सीएनटी एक्ट लागू करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस कानून ने आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को हस्तांतरित करने पर रोक लगाई और खुंटकट्टी जैसे सामुदायिक स्वामित्व अधिकारों की रक्षा की। यह कानून आज भी आदिवासी समुदायों की भूमि सुरक्षा के लिए एक महत्त्वपूर्ण आधारशिला है। राजस्थान राज्य में भी राजस्थान काश्तकारी अधिनियम बनाते समय इस महत्वपूर्ण भूमि संरक्षण ध्यान में रखा है जिसके कारण आदिवासी समुदाय की भूमि सुरक्षित है। इसके अतिरिक्त, उनके आंदोलन ने बेगारी प्रथा, जबरन श्रम जैसी अमानवीय प्रथाओं के अंत के लिए भी ब्रिटिश राज को बाध्य किया।
वर्तमान परिपेक्ष्य में धरती आबा के, आदर्शों की उपयोगिता
भगवान बिरसा मुंडा के आदर्श आज के आधुनिक और लोकतांत्रिक भारत के लिए पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। उनके सिद्धांत हमारे समावेशी विकास और सामाजिक न्याय के लक्ष्यों को दिशा प्रदान करते हैं।
पर्यावरण संरक्षण और संवहनीयता
बिरसा मुंडा का जल-जंगल-जमीन पर केंद्रित संघर्ष आज के पर्यावरण संकट और जलवायु परिवर्तन के दौर में अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह हमें सिखाते हैं कि जंगल केवल व्यावसायिक संसाधन नहीं हैं बल्कि हमारे पारिस्थितिकी तंत्र और संस्कृति के प्रतीक हैं। आज जब हम सतत विकास की बात करते हैं तो हमें आदिवासियों की तरह ही प्रकृति के साथ सह.अस्तित्व की भावना को अपनाना होगा। केन्द्र और राज्य सरकार भी इसी सोच के साथ अपनी वन और पर्यावरण नीतियों में आदिवासी समुदायों की पारंपरिक ज्ञान और भागीदारी को प्राथमिकता दे रही है।
सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति और नैतिक जीवन
बिरसा मुंडा का शराब निषेध और अंधविश्वासों के विरुद्ध अभियान आज के समाज के लिए भी एक बड़ा सबक है। नशाखोरी और सामाजिक कुरीतियां आज भी कई समुदायों के उत्थान में बड़ी बाधा हैं। उनका बिरसाईत आंदोलन हमें सिखाता है कि आंतरिक शुद्धता और नैतिकता ही किसी भी बड़े सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन की पहली शर्त है। यह आदर्श आज के युवाओं को नैतिक उत्तरदायित्व और चरित्र निर्माण के लिए प्रेरित करता है।
आर्थिक न्याय और समानता
बिरसा मुंडा ने साहूकारों और जमींदारों के शोषण के खिलाफ लड़ाई लड़ी। वर्तमान में यद्यपि औपनिवेशिक शोषण समाप्त हो गया है किंतु आर्थिक असमानता, विस्थापन और ऋणग्रस्तता आज भी मौजूद हैं। उनका संघर्ष हमें याद दिलाता है कि सरकार का प्राथमिक दायित्व अंतिम व्यक्ति के आर्थिक सशक्तीकरण और शोषण से मुक्ति को सुनिश्चित करना है। भूमि का अधिकार, बेहतर न्यूनतम समर्थन मूल्य और आजीविका सुरक्षा आज भी उनके सिद्धांतों की ही निरंतरता हैं।
संवैधानिक अधिकार और स्वशासन
उनका नारा अबुआ दिसुम अबुआ राज आज भारतीय संविधान की पंचायतों के प्रावधान, अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार अधिनियम, 1996 में निहित है। पेसा और संविधान की पाँचवीं अनुसूची आदिवासी समुदायों को उनके पारंपरिक क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासनए स्वायत्तता और संसाधनों पर नियंत्रण प्रदान करती है। बिरसा मुंडा का संघर्ष ही इस संवैधानिक भावना का मूल आधार है।
राजस्थान में जनजाति गौरव वर्ष का संकल्प
राजस्थान एक ऐसा राज्य है जहां आदिवासी समुदाय का शौर्य इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। हमें गर्व है कि हम केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलन एवं सामाजिक चेतना में जनजातीय समुदाय के समर्पित योगदान को सभी नागरिकों के स्मृति धारण के दृष्टिगत घोषित कार्यक्रम जनजातीय गौरव दिवस के साथ कदम मिलाते हुए भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती के उपलक्ष्य में, 15 नवंबर, 2024 से 15 नवम्बर, 2025 तक पूरे राज्य में जनजाति गौरव वर्ष मना रहे हैं। विशेष रूप से 1 से 15 नवंबर, 2025 तक आयोजित होने वाले विशिष्ट कार्यक्रम जैसे आदि हाट और श्वन धन केंद्रों पर जनजातीय उत्पादों का प्रदर्शन स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन और कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम इत्यादि न केवल हमारे आदिवासी भाई-बहनों की समृद्ध विरासत को राष्ट्रीय पहचान दे रहें है बल्कि उन्हें शिक्षा, उद्यमिता और आत्मनिर्भरता की दिशा में सशक्त भी कर रहें है। इस पहल का उद्देश्य बिरसा मुंडा के जीवन दर्शन को युवा पीढ़ी तक पहुंचाना है, ताकि वे प्रतिरोध, साहस और अपनी संस्कृति पर गर्व करने की भावना से प्रेरित हों। धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा की विरासत एक शाश्वत यादगार है। यह हमें याद दिलाती है कि सच्चा राष्ट्रीय तभी फलीभूत होता है जब समाज के सबसे कमजोर वर्ग को न्याय मिले। आइए, इस जनजाति गौरव वर्ष के माध्यम से हम सब सरकार समाज और नागरिक मिलकर एक ऐसा राजस्थान और एक ऐसा भारत बनाने का संकल्प लें जो बिरसा मुंडा के आदर्शों पर आधारित हो, अन्याय मुक्त, शोषण मुक्त और आत्मनिर्भर भारत।

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