सतरंगी सियासत

सतरंगी सियासत

आपातकाल मानो कांग्रेस की दुखती रग। विशेष रूप से भाजपा इसकी याद दिलाती रहती। इसमें वह विपक्षी दल भी शामिल हो जाते। जो आज कांग्रेस के साथ।

दो तरफा निशाना
आपातकाल मानो कांग्रेस की दुखती रग। विशेष रूप से भाजपा इसकी याद दिलाती रहती। इसमें वह विपक्षी दल भी शामिल हो जाते। जो आज कांग्रेस के साथ। संसद सत्र की शुरूआत में ही आपातकाल को लेकर दो तरफा निशाना। पहले, लोकसभा में ओम बिरला बोले। तो अगले ही दिन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी सांसदों के संयुक्त संबोधन में इसका जिक्र किया। सो, कांग्रेस का असहज होना लाजमी। वैसे कांग्रेस ने लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव के दिन ही सदन में हंगामा किया। असल में, कांग्रेस कई बार आरोप लगाती कि आज देश में अघोषित आपातकाल जैसे हालात। मोदी सरकार विपक्षी दलों को डरा रही। लेकिन भाजपा के पास इसकी तगड़ी काट। सो, वह समय-समय पर इस दुखती रग को दबाती रहती। नई सरकार का गठन हो गया। कामकाज शुरू ही हुआ था कि दो संवैधानिक पदों पर बैठे महानुभावों ने आपातकाल का जिक्र कर डाला।  

असमंजस तो नहीं?
आरएलपी सांसद हनुमान बेनीवाल और भारत आदिवासी पार्टी (बाप) के राजकुमार रोत मानो असमंजस में! वह विरोधी खेमे के साथ। लेकिन केन्द्र और राज्य में भाजपा की सरकार। क्षेत्र की जनता के लिए काम भी इन्हीं से करवाने। सो, कांग्रेस के साथ दिखाकर आखिर क्या मिलेगा? इसीलिए शुरूआत में ही मानो संकेत। वह कांग्रेस के मेहरबानी से नहीं जीते। बल्कि राजनीति में खुद जगह बनाकर संसद तक पहुंचे। इससे एक बार तो कांग्रेस भी असहज। लेकिन इसी से खुश कि भाजपा को हरा दिया। हां, इन दोनों ही दलों का राजनीतिक विस्तार, मतलब केवल कांग्रेस का घाटा। बेनीवाल एवं रोत अपनी आक्रामक राजनीति के लिए जाने जाते। हनुमान बेनीवाल तो कभी भाजपा में भी रह चुके। लेकिन राजकुमार रोत की राजनीति भाजपा से एकदम विपरीत। उन्हें कांग्रेस भी रास नहीं आती। लेकिन सवाल जनता की सेवा का। इसीलिए भाजपा के प्रति साफ्ट रहना भी जरूरी!

होश ठिकाने...
टीआरएस से बीआरएस होने वाली पार्टी के मुखिया केसीआर अब जमीन पर। और इस मुश्किल समय में उनके साथी एक-एक करके छोड़ते जा रहे। एक तो आम चुनाव में बुरी तरह हार गए। पिछले साल राज्य की सत्ता चली गई। जिस पर वह दस साल से काबिज थे। उधर, बेटी कविता शराब नीति मामले में लंबे समय से जेल में। कहां तो वह देश का पीएम बनने का सपना संजोकर देश भ्रमण पर निकले थे। इसके लिए अपने राजस्थान के छोटे दलों से भी उन्होंने संपर्क साधा। लेकिन बात आगे बड़ी नहीं। अब तो केसीआर के पिछले विधानसभा में जीते हुए विधायक भी कांग्रेस में शामिल हो रहे। आंध्रप्रदेश में पार्टी का कोई अस्तित्व नहीं। राज्य की जनता केसीआर को पसंद नहीं करती। क्योंकि वही तो राज्य के बंटवारे के कर्णधार और सूत्रधार। तो बीआरएस के वहां पैर कैसे जमेंगे? मतलब केसीआर के होश ठिकाने।

माकूल जवाब
अमरीका का इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रिडम (आइआरएफ) की रिपोर्ट के बहाने भारत पर निशाना। लेकिन इस बार भारत ने उसे माकूल जवाब दिया। असल में, यह सब अमरीका की सालाना रेगुलर प्रेक्टिस। जब वह किसी देश पर दबाव बनाने की कोशिश करता। तो यही तरकीब अपनाता। अमरीका अभी तक यह स्वीकारने को राजी नहीं कि भारत अब पहले जैसा नहीं। इसीलिए हर तरह से भारत पर शिकंजा कसने की कोशिश करता रहता। लेकिन भारत ने इस बार कहा, पहले खुद अपने यहां हुई घटनाओं पर ही गौर कर ले। फिर दूसरे को ज्ञान दें। बात लोकतंत्र की हो या शासन में पारदर्शिता की। अथवा मानवाधिकार की हो या धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों की स्थिति की। अमरीका इन्हीं बहानों से मजबूत हो रहे किसी देश पर शिकंजा कसता। लेकिन अपनी गिरेबां में कभी नहीं झांकता। बल्कि दूसरे पर दबाव बनाकर उसे अपने इशारे पर चलने को मजबूर करता।

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जोश में विपक्ष!
कांग्रेस की अगुवाई में इस बार विपक्ष जोश में। एक तो सांसद बढ़ गए। दूसरा, मोदी की अगुवाई में भाजपा लगातार तीसरी बार 272 का जादुई आंकड़ा पार नहीं कर सकी। फिर जदयू और टीडीपी ऐसे दल। जो कभी कांग्रेस की अगुवाई वाले वाले गठबंधन में रह चुके। कांग्रेसी भरोसे का एक एंगल यह भी। सो, उम्मीद पालना गलत नहीं। लेकिन जिस तरह से पीएम मोदी अपने प्रशासनिक एवं राजनीतिक कामकाज में निरंतरता दिखा रहे। उससे लग नहीं रहा कि वह विपक्षी आशावाद पर गौर कर रहे। बल्कि वह अपनी गति से आगे बढ़ रहे और महत्वपूर्ण नियुक्तियां कर रहे। लगातार अपने साथियों को आगे आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए आगाह कर रहे। हां, कांग्रेस जितनी एका की बात कर रही। वह जमीन पर नहीं दिख रहा। लोकसभा स्पीकर के चुनाव में मत विभाजन के करीब जाकर पीछे हट जाना। इसी का इशारा!

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एक और चयन!
संजय झा के रूप में जदयू में एक नई नियुक्ति। यह आम चुनाव बाद का चयन। हालांकि नीतीश कुमार लंबे समय से सीएम पद पर विराजमान। साल 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव किसकी अगुवाई में होंगे? जदयू द्वारा भाजपा को समर्थन देने की एवज में नीतीश यह आश्वासन ले चुके। यानी नीतीश ही सीएम पद के प्रत्याशी होंगे। लेकिन यह लंबा चलेगा। इसमें जानकारों को संदेह! नीतीश के साथ प्रशांत किशोर उपाध्यक्ष रह चुके। तो लल्लन सिंह और आरसीपी सिंह भी जदयू की अगुवाई कर चुके। लेकिन नीतीश के प्रभाव से बाहर नहीं आए। और अब संजय झा। केसी त्यागी सीएम नीतीश के राजनीतिक सलाहकार। जो काफी वरिष्ठ और अनुभवी भी। उन्होंने कई दौरे देखे। वैसे, माना जा रहा। साल के अंत में महाराष्ट्र समेत चार राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव बाद उलटफेर की संभावना! आखिर अगली आस लगाकर रहने में परेशानी क्या?

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राहुल की परीक्षा!
साल 2004 से ही लगातार लोकसभा सांसद चुने जा रहे राहुल गांधी के भी अब राजनीतिक कौशल परीक्षा। इसी दौरान संप्रग दस साल तक सत्ता में रहा। लेकिन राहुल गांधी किसी जिम्मेदारी पर नहीं रहे। इस बार नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में। जानकार भले ही पीएम मोदी की परीक्षा बता रहे हों। क्योंकि आज तक उन्होंने गठबंधन की नहीं। बल्कि भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार चलाई। लेकिन यही बात राहुल गांधी के लिए भी। उनके सामने विपक्षी नेता के रूप में सभी सहयोगियों को साथ लेकर चलने की चुनौती। लोकसभा स्पीकर के चुनाव में पहले ममता बनर्जी की टीएमसी ने हिला हवाली दिखाई। तो के. सुरेश को स्पीकर पद का प्रत्याशी घोषित करते समय सपा से राय मश्विरा करने की जरूरत महसूस नहीं की गई। सो, तालमेल एवं चर्चा करके निर्णय करने की बात सामने आ ही गई। और यही समस्या आगे भी संभव!

-दिल्ली डेस्क
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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