बदलती जलवायु, बिगड़ता स्वास्थ्य

जागरूकता जरूरी है 

बदलती जलवायु, बिगड़ता स्वास्थ्य

प्रदूषण अब केवल पर्यावरणीय संकट नहीं, बल्कि एक स्वास्थ्य आपातकाल बन चुका है।

प्रदूषण अब केवल पर्यावरणीय संकट नहीं, बल्कि एक स्वास्थ्य आपातकाल बन चुका है। द लैंसेट काउंटडाउन ऑन हेल्थ एंड क्लाइमेट चेंज 2025 की एक रिपोर्ट के अनुसार, पीएम 2.5 कण, घरेलू ईंधन का धुआं, वाहनों और उद्योगों से उत्सर्जन इसके प्रमुख कारण हैं। जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के संयुक्त प्रभाव से दिल की बीमारियां, फेफड़ों के रोग, स्ट्रोक और समय से पहले मृत्यु के मामलों में तेजी आई है। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि यदि ठोस कदम तुरंत नहीं उठाए गए, तो आने वाले वर्षों में स्थिति और भयावह होगी। रिपोर्ट का प्रमुख संदेश स्पष्ट है, जलवायु कार्रवाई ही स्वास्थ्य की जीवनरेखा है। लैंसेट की रिपोर्ट बताती है कि 1990 के दशक से अब तक गर्मी संबंधित मृत्यु दर में 23प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो अब सालाना करीब 5.46 लाख मौतों तक पहुंच चुकी है।

मानवजनित तापमान :

वर्ष 2024 में प्रत्येक व्यक्ति ने औसतन 16 दिन घातक गर्मी झेली, जो मानवजनित तापमान वृद्धि के बिना संभव नहीं थी। गर्मी और शुष्कता से वनाग्नियों की घटनाएं भी बढ़ीं, जिनके धुएं से 2024 में लगभग 1.54 लाख मौतें दर्ज हुईं। वहीं खाद्य-सुरक्षा पर गंभीर प्रभाव पड़ा ,वर्ष 2023 में लगभग 1.23 करोड़ लोग अतिरिक्त खाद्य-संकट का सामना कर चुके हैं। वर्ष 2024 में 639 अरब श्रम घंटे बर्बाद हुए, जिससे कम विकसित देशों की जीडीपी में 6प्रतिशत तक की गिरावट आई। यह केवल पर्यावरण नहीं, बल्कि आर्थिक स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर खतरा है। भारत विश्व के सबसे प्रदूषित देशों में शुमार है। दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा, पटना, लखनऊ, वाराणसी और कानपुर जैसे शहरों में वायु गुणवत्ता का स्तर डब्ल्यूएचओ मानकों से कई गुना अधिक पाया गया है। पीएम 2.5 और पीएम 10 जैसे सूक्ष्म कण फेफड़ों और रक्तप्रवाह में प्रवेश कर शरीर को धीरे-धीरे बीमार बना देते हैं।

नीतियां और कानून :

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सर्दियों में दिल्ली की हवा सांस लेने योग्य नहीं रह जाती। स्मॉग, वाहन धुआं, पराली जलाना और औद्योगिक उत्सर्जन मिलकर जहरीला मिश्रण बना देते हैं। बीते दस वर्षों में वायु प्रदूषण के चलते हृदय रोगों से होने वाली मौतों में 27प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। विडंबना यह है कि लोग इस संकट को सामान्य समस्या मानकर अनदेखा कर देते हैं। नीतियां और कानून बने हैं पर उनका पालन केवल कागजों पर रह गया है। जब तक व्यक्ति और समाज दोनों स्तरों पर जिम्मेदारी नहीं निभाई जाएगी, तब तक बदलाव असंभव है। दिल्ली में प्रदूषण कोई नई समस्या नहीं। 1980 के दशक के उत्तरार्ध से जनसंख्या, औद्योगीकरण और वाहनों की संख्या में तेज वृद्धि ने इसे स्थायी संकट बना दिया। सरकार ने समय-समय पर कई उपाय किए-पुराने वाहनों पर प्रतिबंध, निर्माण स्थलों पर धूल नियंत्रण,ओड-ईवन नीति,इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा, मिस्ट स्प्रेयर व एंटी-स्मॉग गन का उपयोग।

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विश्व स्वास्थ्य संगठन :

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फिर भी प्रदूषण का स्तर कम नहीं हो पाया। दिल्ली में वाहनों की घनत्व दर देश में सबसे अधिक है 2020-21 में प्रति हजार व्यक्तियों पर 655 वाहन दर्ज किए गए। यह निजी वाहनों पर बढ़ती निर्भरता को दर्शाता है, जबकि यहां मेट्रो जैसी उत्कृष्ट सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था भी मौजूद है। विश्व स्वास्थ्य संगठन बार-बार चेतावनी दे चुका है कि वायु प्रदूषण आज मानव स्वास्थ्य की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। डब्ल्यूएचओ मानकों के अनुसार,पीएम 10 का स्तर 100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर,और पीएम 2.5 का स्तर 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होना चाहिए। लेकिन दिल्ली में सर्दियों के दौरान यह स्तर चार गुना तक बढ़ जाता है। परिणामस्वरूप, हवा में मौजूद जहरीले तत्व श्वसन रोग, हृदय रोग, त्वचा विकार और बच्चों-बुजुर्गों में गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं पैदा करते हैं। प्रदूषित हवा अब केवल सांस की समस्या नहीं, बल्कि हृदय रोग और मानसिक तनाव का भी कारण बन रही है।

जलवायु परिवर्तन :

फसलों के प्रभावित होने से कुपोषण बढ़ा है, जबकि सूखा और जल की कमी मानसिक स्वास्थ्य पर दबाव बढ़ा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन अब केवल तापमान बढ़ने की कहानी नहीं रह गई है। लू, बाढ़, तूफान, सूखा, शीतलहर, ओलावृष्टि और जंगल की आग पहले की तुलना में अधिक बार और अधिक तीव्र रूप में हो रही हैं। इनका प्रभाव मानव जीवन, कृषि, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था पर सीधा पड़ रहा है। यह पीड़ा विशेष रूप से उन लोगों की है, जो स्वयं इस संकट के कारक नहीं हैं, फिर भी उसकी सजा भुगतने को अभिशप्त हैं। यदि अब भी हम जागरूक नहीं हुए, तो आने वाली पीढ़ियां सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा को विलासिता मानेंगी। प्रदूषण नियंत्रण केवल सरकार की नहीं, बल्कि हर नागरिक की जिम्मेदारी है। इसके प्रमुख समाधान इस प्रकार हो सकते हैं-वाहन उत्सर्जन पर नियंत्रण,इलेक्ट्रिक और हाइब्रिड वाहनों को प्रोत्साहन। सार्वजनिक परिवहन का विस्तार, औद्योगिक उत्सर्जन पर सख्त नियंत्रण प्रदूषण जांच और दंडात्मक नीति। हरित क्षेत्र व वृक्षारोपण से शहरी हरियाली-वायु गुणवत्ता में सुधार होगा।

जागरूकता जरूरी है :

पराली जलाने के विकल्प में बायो-सीएनजी व खाद निर्माण को प्रोत्साहन। पर्यावरणीय शिक्षा व जन-जागरूकता जरूरी है। आज प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय समस्या नहीं, बल्कि मानव अस्तित्व का प्रश्न बन चुके हैं। लैंसेट काउंटडाउन 2025 की रिपोर्ट केवल चेतावनी नहीं, बल्कि अंतिम घंटी है। यदि अभी ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और जीवन खतरे में पड़ेंगे। समय रहते की गई जलवायु कार्रवाई न केवल स्वास्थ्य लाभ दे सकती है, बल्कि आर्थिक और सामाजिक असमानता को भी कम कर सकती है। प्रदूषण की पीड़ा वही समझ सकता है जो हर दिन जहरीली हवा में सांस ले रहा है। अब वक्त आ गया है कि हम सब मिलकर यह तय करें, क्या हम आने वाली पीढ़ियों को नीली आसमान की धरोहर देंगे, या धुंध और बीमारी की विरासत।

-सुनील कुमार महला
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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