भारतीय बाल श्रम समस्या व समाधान
दुनिया में बच्चों की सबसे बड़ी आबादी भारत में
बड़ी संख्या उन बच्चों की है, जो स्कूल जाने के बजाय खेतों, कारखानों और शहरी घरों में घरेलू सेवक या नौकर के तौर पर मजदूरी कर रहे हैं।
दुनिया में बच्चों की सबसे बड़ी आबादी भारत में है। देश की 37 प्रतिशत आबादी 18 साल से कम उम्र के बच्चों की, जिनकी संख्या लगभग 44.20 करोड़ है, लेकिन इनमें एक बड़ी संख्या उन बच्चों की है, जो स्कूल जाने के बजाय खेतों, कारखानों और शहरी घरों में घरेलू सेवक या नौकर के तौर पर मजदूरी कर रहे हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में पांच से 14 वर्ष की आयु के कुल एक करोड़ दस लाख बच्चे बाल मजदूर थे। यानी प्रतिशत के हिसाब से भले ही नहीं, लेकिन संख्या के हिसाब से सबसे ज्यादा बाल मजदूर भारत में हैं। अगर हम बच्चों को देश का भविष्य मानें तो उनकी इतनी बड़ी आबादी का स्कूल जाने की उम्र में खेतों, कारखानों व ढ़ाबों में मजदूरी करना कई सवाल खड़े करता है। खासतौर से उस स्थिति में जहां बाल मजदूरी को रोकने के लिए दुनिया के सबसे प्रगतिशील कानून हों और तथा पुनर्वास एवं क्षतिपूर्ति के लिए सावधानी से बनाई गई योजनाएं हों।
संविधान के अनुच्छेद 24 में 14 साल से कम उम्र के बच्चों से खानों, कारखानों और किसी भी जोखिम भरे खतरनाक उद्योगों में काम नहीं कराया जा सकता। आजादी के तुरंत बाद 1948 में भारत सरकार ने कारखाना कानून के जरिए 15 साल से कम उम्र के बच्चों के कारखानों में काम करने पर पाबंदी लगा दी। इसके बाद 1952 में खान अधिनियम के जरिए बच्चों के खदानों में काम करने पर प्रतिबंध लगाया गया। फिर 1973 में बाल श्रम निषेध कानून और 1976 में बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन के लिए बंधुआ मजदूरी प्रणाली अधिनियम लागू किया गया। इसके बाद बाल श्रम की रोकथाम के उपाय सुझाने के लिए बनी गुरुपद समिति की सिफारिशों पर 1986 में बाल श्रम अधिनियम पारित किया गया, जो 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों से किसी भी तरह का जोखिम भरा काम लेने पर पाबंदी लगाता है। इसके बाद बाल श्रम संशोधन अधिनियम 2016 पारित किया। इसके तहत 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों से काम लेने और जोखिम भरे काम व व्यवसाय में 18 साल के से कम उम्र के बच्चों से काम लेने को दंडनीय अपराध बनाया गया। गुरुपद समिति की सिफारिशों पर बाल मजदूरों के पुनर्वास के लिए 1988 में केंद्र सरकार ने राष्टÑीय बाल श्रम परियोजना शुरू की, जो फिलहाल देश के 21 राज्यों के 314 जिलों में लागू की जा रही है।
एनसीएलपी एक समग्र योजना है, जो बाल मजदूरी से मुक्त कराए गए बच्चों के स्कूल में दाखिले और उनके परिवारों को उनकी आय में सुधार के लिए वैकल्पिक साधन प्रदान करने में सहायता करती है। इसमें बाल मजदूरों के लिए विशेष स्कूल या पुनर्वास केंद्र खोलने के लिए जिला परियोजना सोसायटी को वित्तीय मदद दी जाती है।
अपने बच्चों से बाल मजदूरी बंद कराने वाले परिवारों को वजीफा भी दिया जाता है। इस परियोजना ने अब तक 12 लाख बच्चों को बचाया है, लेकिन अप्रैल 2021 से इस योजना को समग्र शिक्षा अभियान में शामिल कर दिया गया और साफ कर दिया गया कि न तो किसी विशेष प्रशिक्षण केंद्र खोलने के लिए वित्तीय मदद दी जाएगी और न ही केंद्रों में किसी बच्चे को दाखिला दिया जाएगा। अगर बंधुआ बाल मजदूरों की बात करें तो जांच और सत्यापन के बाद बच्चा या बच्ची अगर बंधुआ मजदूर घोषित की जाती हैं, तो उसे एक रिहाई प्रमाणपत्र जारी किया जाता है। ऐसे में यदि आरोपी को अदालत से सजा होती है, तो बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास की केंद्र की योजना के तहत पीड़ित बच्चा 3 लाख रुपए तक के मुआवजे का हकदार है, अगर वह जाहिरा तौर पर किसी प्लेसमेंट एजेंसी में यौन शोषण या ट्रैफिकिंग से पीड़ित हुआ हो तो। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2017 से 2024 के बीच विभिन्न राज्य सरकारों ने 3341 बच्चों को बंधुआ मजदूरी करते पाया और उन्हें रिलीज सर्टीफिकेट जारी किए। इन बच्चों के लिए मुआवजे की रकम 100 करोड़ से भी ज्यादा बैठती है और यह राशि केंद्रीय बजट से दी जानी है। लेकिन स्थिति यह है कि बंधुआ बाल मजदूरों को क्षतिपूर्ति योजना के तहत आवंटित राशि 2023-24 के बजट में आबंटित 20 करोड़ रुपए से घटाकर इस बार 6 करोड़ कर दी गई है।
ऐसे में यदि बच्चे से बंधुआ मजदूरी कराने के आरोपी को सजा हुई और हर बच्चे को 3 लाख रुपए का मुआवजा मिला तो 6 करोड़ रुपए की इस राशि से महज 200 बंधुआ बाल मजदूरों का पुनर्वास हो सकता है। बाकी बचे 3141 बंधुआ बाल मजदूरों को संविधान में दी गई गारंटी के बावजूद न्याय से वंचित रहना पड़ेगा। बाल श्रम, बंधुआ मजदूरी के उन्मूलन और पुनर्वास राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना और केंद्र की अन्य योजनाओं के अधीन विषय हैं। सबसे पहले लोगों को समझाना होगा कि बाल श्रम सिर्फ कानूनन अपराध नहीं, बल्कि बच्चों के भविष्य के प्रति भी अपराध है। इसके लिए नागरिक संगठनों और सभी हितधारकों के साथ बड़े पैमाने पर जागरूकता अभियानों की जरूरत है।
-डॉ. शैलेंद्र पंड्या
यह लेखक के अपने विचार हैं।
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