देश में पहली बार राजस्थान में हुई थी मुख्यमंत्री के खिलाफ बगावत

आठ वोट अधिक लेकर व्यास को कुर्सी से हटाया था

देश में पहली बार राजस्थान में हुई थी मुख्यमंत्री के खिलाफ बगावत

महाराष्ट्र सरकार में उठापटक जैसा हादसा कोई पहली बार नहीं है। ठीक ऐसा ही 68 साल पहले राजस्थान में हो चुका।

जयपुर। महाराष्ट्र सरकार में उठापटक जैसा हादसा कोई पहली बार नहीं है। ठीक ऐसा ही 68 साल पहले राजस्थान में हो चुका। देश में सत्ता परिवर्तन का यह पहला हादसा था, तब मोहनलाल सुखाड़िया ने 1954 में जयनारायण व्यास जैसे वरिष्ठ और कद्दावर नेता को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाकर स्व्यं काबिज हुए थे। इस हादसे के चश्मदीद रहे सीताराम झालाणी के अनुसार सुखाड़िया ने आठ वोट अधिक लेकर व्यास को कुर्सी से हटाया था। उस समय विधानसभा में 180 सीटें थी और उस पहले चुनाव में कांग्रेस और सहयोगियों के 92 विधायक थे। जयनरायण व्यास मुख्यमंत्री बने थे। उस समय राजस्थान में राजनीतिक चक्र तेजी से घूमा और उस पर देश की नजरें थी। झालाणी के अनुसार 22 रियासतों से राजस्थान में शुरू से ही कांग्रेस में गुटबाजी रही है, तब कांग्रेस में चार दिग्गज नेता थे, हीरालाल शास्त्री, जयनारायण व्यास, माणिकलाल वर्मा और गोगुलभाई भट्ट। इनमें से शास्त्री जयपुर और व्यास जोधपुर रियासत के प्रधानमंत्री रहे थे।

राजस्थान का निर्माण हुआ, तो हीरालाल शास्त्री को मुख्यमंत्री बनाया गया। शास्त्री पर तत्कालीन केन्द्रीय गृह मंत्री और रियासत मंत्रालय के अध्यक्ष सरदारबल्लभ भाई पटेल का हाथ था और पर्दे के पीछे से अखिल भारतीय कांग्रेस के कोषाध्यक्ष घनश्याम दास बिड़ला भी शास्त्री के पक्ष में थे। शास्त्री की केबिनेट में टीकाराम पालीवाल, दौलतमल भण्डारी, देवीशंकर तिवाड़ी और ठाकुर कुशलसिंह गीजगढ़ जैसे कद्दावर नेता मंत्री थे। शास्त्री को मुख्यमंत्री बनाते ही कांग्रेस में गुटबाजी हो गई और शास्त्री गुट के खिलाफ आवाज उठाने वालों में दौसा के रामकरण जोशी सबसे आगे थे। जोशी और टीकाराम पालीवाल दोनों जयनारायण व्यास को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू भी व्यास के पक्ष में थे। गुटबाजी के चलते शास्त्री और व्यास के बीच तगड़ी दुश्मनी हो गई थी। इसके चलते व्यास के जोधपुर प्रधानमंत्री कार्यकाल के समय हुए खर्चों को लेकर शास्त्री ने स्पेशल कोर्ट गठित कर जांच शुरू करवा दी।

इस हादसे से माणिक लाल वर्मा भी व्यास के साथ हो गए। हीरालाल शास्त्री के 21 महीने के कार्यकाल में उनके विरोधियों की भूमिका अन्य किसी दल के नेताओं ने नहीं बल्कि खुद कांग्रेसियों ने ही निभाई थी। झालाणी ने बताया कि शास्त्री ने पहला आम चुनाव नहीं लड़ा था। जयनारायण व्यास ने दो जगह से चुनाव लड़ा था और दोनों सीटों से ही हार गए थे। टीकाराम पालीवाल ने भी दो सीटों महवा और मलारना डूंगर से चुनाव लड़ा था और दोनों सीटों पर जीत दर्ज कराई थी। लेकिन कांग्रेस ने व्यास को मुख्यमंत्री बनाया था और पालीवाल उनकी कैबिनेट में नंबर दो थे। अगस्त 1953 में किशनगढ़ सीट से विधायक बने चांदमल मेहता का त्याग-पत्र करवाकर उप चुनाव में व्यास को लड़ाया था। वे चुनाव जीते और फिर मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस की गुटबाजी यहीं नहीं थमी और व्यास के खिलाफ माहौल बनता गया।

कांग्रेस के अधिकांश विधायक व्यास के खिलाफ हो गए। एक गुट युवा नेता मोहनलाल सुखाड़िया के पक्ष में खड़ा हो गया। आखिरकार उच्च स्तर पर तय हुआ कि नेता को लेकर विधायकों की वोटिंग करवाई जाए और 1954 में विधानसभा में विधायकों की वोटिंग करवाई गई। वोटिंग के समय जलेबचौक खचाखच भर गया था। वोटिंग में सुखाड़िया के पक्ष में आठ वोट ज्यादा डले और कांग्रेस नेतृत्व ने मुख्यमंत्री की बागडोर मात्र 37 साल मोहनलाल सुखाड़िया के हाथों में सौंप दी, जो 17 साल तक इस प्रदेश के मुख्यमत्री रहे। इंदिरा गांधी के दखल की वजह से उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ गई थी।

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