ऊर्जा दक्षता नई शक्ति का मंत्र
बीते दो दशकों में देश ने बिजली उत्पादन में उल्लेखनीय प्रगति की
भारत आज उस दहलीज पर खड़ा है, जहां ऊर्जा की आवश्यकता केवल विकास की गति को बनाए रखने का माध्यम नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक समृद्धि और पर्यावरणीय संतुलन की कुंजी बन चुकी है।
भारत आज उस दहलीज पर खड़ा है, जहां ऊर्जा की आवश्यकता केवल विकास की गति को बनाए रखने का माध्यम नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक समृद्धि और पर्यावरणीय संतुलन की कुंजी बन चुकी है। बीते दो दशकों में देश ने बिजली उत्पादन में उल्लेखनीय प्रगति की है, विशेषकर नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में, किंतु इसके बावजूद वह अपनी चरम बिजली मांग को पूरा नहीं कर पा रहा। गर्मियों में बढ़ती बिजली की खपत, शहरीकरण और जीवनशैली में बदलाव ने मांग को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया है, जबकि आपूर्ति प्रणाली अब भी पारंपरिक ढांचे में जकड़ी हुई है। ऐसे में केवल उत्पादन बढ़ाना ही समाधान नहीं, बल्कि ऊर्जा की दक्ष खपत को प्राथमिकता देना समय की मांग है। भारत में बीते दो दशकों में बिजली उत्पादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की हिस्सेदारी में वृद्धि और उत्पादन क्षमताओं के विस्तार के बावजूद, देश अब भी अपनी पीक पावर डिमांड को पूरा करने में असमर्थ दिखाई देता है।
वर्ष 2020 में जहां बिजली की मांग और आपूर्ति में केवल 0.69प्रतिशत की कमी थी, वहीं वित्तीय वर्ष 2024 तक यह अंतर बढ़कर लगभग 5प्रतिशत तक पहुंच गया है। यह आंकड़ा केवल एक आंकड़ा नहीं, बल्कि देश की ऊर्जा नीति, अवसंरचनात्मक सीमाओं और बढ़ती उपभोक्ता आवश्यकताओं की जटिलता को दर्शाता है। ऊर्जा उत्पादन की प्रक्रिया, विशेष रूप से जब वह जीवाश्म ईंधन पर आधारित हो, समयसाध्य और पूंजी-सघन होती है। भारत भले ही नवीकरणीय ऊर्जा को ऊर्जा मिश्रण में समाहित करने की दिशा में प्रयासरत हो, परंतु ऊर्जा ग्रिड में इन स्रोतों के एकीकरण में तकनीकी व संस्थागत बाधाएं स्पष्ट रूप से दिखती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में, ऊर्जा दक्षता का महत्व और भी बढ़ जाता है।
ऊर्जा दक्षता वह उपाय है जो न केवल ऊर्जा की खपत को घटाता है, बल्कि कम लागत में अधिक ऊर्जा सेवा प्रदान करके देश की अर्थव्यवस्था और पर्यावरण दोनों की रक्षा करता है। वर्तमान समय में भारत को ऊर्जा मांग और जलवायु संकट की दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। इस दिशा में भारत सरकार द्वारा वर्ष 2015 में शुरू की गई उजाला योजना को एक मील का पत्थर कहा जा सकता है। उजाला योजना के अंतर्गत अब तक 37 करोड़ एलईडी बल्ब वितरित किए जा चुके हैं और 407 करोड़ बल्बों की बिक्री की सुविधा प्रदान की गई है। इन बल्बों के माध्यम से न केवल खपत घटती है, बल्कि बिजली की मांग में भी 1500 मेगावॉट की कमी लाई गई है। यह योजना मात्र एक उपभोक्ता योजना नहीं थी, बल्कि इसमें सार्वजनिक ऊर्जा दक्षता के सिद्धांतों को भी समाहित किया गया।
स्ट्रीट लाइटिंग नेशनल प्रोग्राम के अंतर्गत देशभर के नगरीय निकायों और ग्राम पंचायतों में 1.34 करोड़ से अधिक एलईडी स्ट्रीट लाइटें लगाई गईं, जिससे नगरों की विद्युत मांग में उल्लेखनीय कमी आई। एलईडी बल्ब, परंपरागत बल्बों की तुलना में लगभग 90प्रतिशत कम बिजली का उपभोग करते हैं और कॉम्पैक्ट फ्लोरेसेंट लैंप्स की तुलना में भी लगभग आधी ऊर्जा में कार्य करते हैं। इससे उपभोक्ताओं के लिए दीर्घकालिक लागत बचत भी सुनिश्चित हुई है। ऊर्जा दक्षता की सफलता को केवल खपत घटाने तक सीमित नहीं रखा जा सकता।
भारतीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार, उजाला योजना से देश को 10 बिलियन से अधिक की बचत हुई है और इसके परिणामस्वरूप 9500 मेगावॉट नई उत्पादन क्षमता की आवश्यकता नहीं पड़ी, जो कि 19 नए कोयला आधारित 500 मेगावॉट संयंत्रों के बराबर है। इससे स्पष्ट होता है कि मांग पक्ष की प्रबंधन नीति, उत्पादन पक्ष की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी और टिकाऊ हो सकती है, बशर्ते इसे समुचित नीति समर्थन प्राप्त हो। भारत में ऊर्जा संरक्षण अधिनियम 2001 लागू होने के बाद से अनेक ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम प्रारंभ किए गए। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार 2000 से 2018 के बीच ऊर्जा दक्षता उपायों के कारण भारत ने अतिरिक्त ऊर्जा मांग से बचाव किया और 300 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को रोका। यह उपलब्धि उस स्थिति में आई है, जब देश में शहरीकरण तेजी से बढ़ा है और गर्मियों में कूलिंग की मांग ऐतिहासिक स्तर पर पहुंच गई है। बीते वर्ष भारत की पीक डिमांड 250 गीगावॉट तक पहुंच गई, जो बताता है कि ऊर्जा की मांग अब केवल औद्योगिक इकाइयों तक सीमित नहीं रही, बल्कि घर-घर तक विस्तारित हो गई है।
आज भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा विद्युत उपभोक्ता है, चीन और अमेरिका के बाद। कोयले पर निर्भरता के कारण पर्यावरणीय दुष्परिणाम, जैसे प्रदूषण, तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन की चुनौती और भी गंभीर हो जाती है। भारत ने 2032 तक 90 गीगावॉट नई कोयला आधारित उत्पादन क्षमता जोड़ने की योजना बनाई है, जो कि वैश्विक जलवायु लक्ष्यों से विपरीत दिशा में प्रतीत होती है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि ऊर्जा दक्षता को केवल एक विकल्प नहीं, बल्कि अनिवार्य नीति के रूप में देखा जाए। इसके लिए बहु-स्तरीय और बहु-क्षेत्रीय रणनीतियों की आवश्यकता होगी। सबसे पहले, भवन निर्माण क्षेत्र में ऊर्जा दक्षता को अनिवार्य बनाना आवश्यक है।
-नृपेन्द्र अभिषेक नृप
यह लेखक के अपने विचार है।

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