स्वास्थ्य की सियासत में अटके जलेबी-समोसे
फैसले का प्रभाव
स्वास्थ्य मंत्रालय का यह फैसला कि समोसे और जलेबी पर तंबाकू की तरह चेतावनी लगाई जाए, केवल एक नीतिगत निर्णय नहीं है।
स्वास्थ्य मंत्रालय का यह फैसला कि समोसे और जलेबी पर तंबाकू की तरह चेतावनी लगाई जाए, केवल एक नीतिगत निर्णय नहीं है। यह उस भारत की कहानी है, जो तेजी से बदल रहा है, जहां खाना सिर्फ खाना नहीं रह गया है बल्कि राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक न्याय का मुद्दा बन गया है। हमारा समाज किस तरह से अपनी पारंपरिक खाद्य संस्कृति को खोकर खतरनाक दिशा में जा रहा है। इन खाद्य पदार्थों में जो ट्रांस फैट है, वह हमारी धमनियों में जमा होकर हृदय रोग का कारण बनता है। वह तेल जो बार-बार इस्तेमाल होता है, वह हमारे लिए धीमा जहर है।
बुनियादी सवाल है :
सरकार का फैसला सीधा है। जहां समोसा बिकता है, वहां लिखा होगा समोसा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। जहां जलेबी बिकती है, वहां लिखा होगा जलेबी से डायबिटीज हो सकता है। यह वही तरीका है, जो तंबाकू के लिए इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन यहां एक बुनियादी सवाल है, क्या खाना और तंबाकू एक ही श्रेणी में आते हैं, इस सवाल का जवाब हमारे समाज की वर्तमान स्थिति में छिपा है। पिछले दो दशकों में बच्चों में मोटापे की दर तेजी से बढ़ी है। यह वह पीढ़ी है, जो मैकडॉनल्ड्स और पिज्जा के साथ-साथ समोसे और जलेबी पर भी पली-बढ़ी है। लेकिन यहां एक दिलचस्प बात यह है कि जब हम पश्चिमी फास्ट फूड की बात करते हैं, तो उसे आधुनिकता की निशानी मानते हैं, लेकिन जब समोसे और जलेबी की बात आती है, तो वह हमारी संस्कृति का हिस्सा बन जाती है।
निम्न आय वाले :
इसमें वर्गीय विभाजन की भी एक परत है। अमीर लोग अपने बच्चों को जिम भेज देते हैं, डाइट प्लान बनवाते हैं और महंगे ऑर्गेनिक फूड खरीदते हैं। लेकिन मध्यम वर्गीय और निम्न आय वाले परिवारों के लिए समोसा और जलेबी सबसे सस्ता और आसान नाश्ता है। यहां सवाल यह है कि क्या यह चेतावनी प्रणाली इस वर्गीय विभाजन को और गहरा कर देगी। पहले लोग पैदल चलते थे, अब गाड़ी से जाते हैं। पहले घर का खाना खाते थे, अब बाहर का खाना खाते हैं। पहले त्योहारों में मिठाई खाते थे,अब रोज खाते हैं। यह बदलाव केवल शहरी इलाकों में नहीं है। गांवों में भी यह प्रवृत्ति बढ़ रही है।
दिलचस्प विरोधाभास :
जब किसान अपने खेत में काम करने के बजाय दिल्ली में रिक्शा चलाता है, तो उसकी शारीरिक गतिविधि कम हो जाती है। जब गांव में भी कोल्ड ड्रिंक और पैकेट वाले नमकीन मिलने लगते हैं, तो पारंपरिक खाना धीरे-धीरे गायब हो जाता है। लेकिन यहां एक दिलचस्प विरोधाभास है। जो सरकार आयुष मंत्रालय के जरिए पारंपरिक भारतीय चिकित्सा पद्धति को बढ़ावा दे रही है, वही सरकार पारंपरिक भारतीय खाने पर चेतावनी लगा रही है। यह दिखाता है कि नीति निर्माण में कभी-कभी कैसे विरोधाभास होते हैं। इस मामले में राजनीति की भूमिका भी दिलचस्प है।
चेतावनी प्रणाली :
यह एक तकनीकी स्वास्थ्य मुद्दा है, इसलिए राजनीतिक बहस अभी तक शुरू नहीं हुई है। यहां एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि यह चेतावनी प्रणाली सिर्फ सरकारी कैंटीन और रेस्टोरेंट में लागू होगी। निजी प्रतिष्ठान अभी इसके दायरे में नहीं हैं। यह एक दिलचस्प चुनाव है, क्योंकि सरकारी कैंटीन में खाने वाले ज्यादातर सरकारी कर्मचारी हैं, जो पहले से ही स्वास्थ्य बीमा और अन्य सुविधाओं से लैस हैं।
फैसले का प्रभाव :
अब आते हैं इस फैसले के व्यापक प्रभावों पर। पहला, यह छोटे व्यापारियों को प्रभावित करेगा। वह समोसे वाला जो नुक्कड़ पर बैठता है, उसे अब अपनी दुकान पर एक बोर्ड लगाना होगा जो कहता है कि उसका खाना हानिकारक है। यह उसके व्यापार को कैसे प्रभावित करेगा। दूसरा, यह हमारी सामाजिक संस्कृति को बदल देगा। शादी-विवाह में, त्योहारों में, मेहमानों के स्वागत में समोसे और जलेबी का इस्तेमाल होता है। अब इन सब जगहों पर चेतावनी का बोर्ड लगेगा।
निजी फैसला है :
सरकार कहां तक हमारी निजी जिंदगी में दखल दे सकती है, हम क्या खाएं, क्या न खाएं, यह हमारा निजी फैसला है, इन सब सवालों के बावजूद, तथ्य यह है कि हमारे देश में मोटापे और डायबिटीज की समस्या गंभीर है। इनके लिए कोई न कोई कदम उठाना जरूरी था। लेकिन सवाल यह है कि क्या चेतावनी लगाना सही तरीका है। तंबाकू के मामले में चेतावनी काम करती है, क्योंकि तंबाकू की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन खाना जरूरी है। देश में बेरोजगारी बढ़ रही है और महंगाई भी बढ़ रही है। लोगों के पास महंगे स्वास्थ्यकर खाने के विकल्प नहीं हैं। ऐसे में सस्ते और आसान नाश्ते पर चेतावनी लगाना कितना उचित है।
-देवेन्द्रराज सुथार
यह लेखक के अपने विचार हैं।

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