योग अनुशासित जीवन का सर्वोत्तम आधार
नियमित अभ्यास से ऊर्जा का संचार होता
आज 11वां योग दिवस है।
आज 11वां योग दिवस है। इसका आरंभ भारत के आवाह्न पर हुआ था। मानसिक स्वास्थ्य अर्जित करने के सर्वोत्तम उपाय के रूप में योग की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक दशक से अधिक अवधि की पहचान ने भारत का मान-सम्मान बढ़ाया है। दैनिक योगाभ्यास करने वाले दुनिया के अधिसंख्य लोगों ने अपने कायिक-मानसिक स्वास्थ्य संवर्द्धन के साथ अपनी आत्मिक शक्तियों में भी वृद्धि की है। भारतीय आयुर्वेद के अंतर्गत वर्णित योगशास्त्र की कायिक मुद्रा आधारित क्रियाओं तथा प्रणायाम गतिविधियों का दैनिक अभ्यास आज विश्व में आध्यात्मिक सेवा क्षेत्र के रूप में स्थापित हो चुका है। योग के स्वास्थ्य केंद्रित, आध्यात्मिक, मानसिक तथा कायिक उपक्रमों ने गत दस से भी अधिक वर्षों से आधुनिक जीवन के अनुसार एक व्यावसायिक उपक्रम के रूप में स्थापित होने की उपलब्धि भी अर्जित की है। भारतीय जीवन परंपरा की इस स्वास्थ्यकारी गतिविधि को एक दशक में एक विशाल सेवा क्षेत्र के रूप में स्थापित होने में व्यापक सफलता प्राप्त हुई है। यह सेवा क्षेत्र आजीविका का माध्यम बनने के साथ विश्वभर में भारतीय आयुर्वेद के स्वाभाविक प्रचार-प्रसार का निमित्त भी बना है। भारत सहित अनेक देशों में योग का सेवा क्षेत्र व्यवसाय तथा आजीविका के रूप में भी उभरा है।
व्यतीत एक दशक में यह अर्थव्यवस्था के लिए भी महत्वपूर्ण एवं उपयोगी सिद्ध हुआ है। इसके लिए प्रत्येक भारतीय गर्वभावना से भरा हुआ है। आयुर्वेद के योगशास्त्र में वर्णित विभिन्न यौगिक क्रियाओं का प्रात: चार बजे से लेकर सूर्योदय के उपरांत कुछ समय तक नियमित, दैनिक अभ्यास करके मनुष्य अपने तन-मन को अपेक्षित स्तर तक स्वस्थ रख सकता है। योग की भिन्न-भिन्न क्रियाएं मानव शरीर के बाह्य व आंतरिक रोगों के उन्मूलन में प्राकृतिक रूप में सहायक होती हैं। प्रकार-प्रकार की शारीरिक मुद्राओं के साथ साकार होनेवाली यौगिक क्रियाएं योग की वृहद उपयोगिता प्राप्त करने के मार्ग में सहायक स्वास्थ्य वर्द्धन इकाइयों की भूमिका में होती हैं। यह योग लक्ष्य के लिए आरंभ होनेवाली यात्रा में आरंभिक चरण हैं। पालथी मुद्रा के साथ स्वच्छ व प्राकृतिक वायु संचरण से समृद्ध भूमि पर बैठना, आंखें बंद करना, निश्चिन्त होना, श्वासों पर ध्यान लगाकर आत्मनियंत्रण करना तथा विभिन्न आयुर्वेदिक योगक्रियाओं जैसे प्राणायाम, कपालभाति, अनुलोम-विलोम, इत्यादि का अभ्यास करना योग के शारीरिक-कायिक उपचार हैं। प्रात:काल में स्वच्छ वायु में बैठकर जितने समय तक ऐसे उपचार किए जाते हैं, शरीर को उतनी ही प्राकृतिक ऊर्जा व शक्ति प्राप्त होती है।
विश्व में रहते हुए वर्त समय के अनुसार नियत अपनी मानवीय भूमिकाओं तथा दायित्वों का सर्वोत्तम निर्वाह एक मानव तब ही कर सकता है, जब विभिन्न यौगिक क्रियाओं के दैनिक अभ्यास से उसका तन-मन स्वस्थ व नीरोग हो। योग से संगठित काया तथा ऊर्जस्वित मन की सहायता से मनुष्य न केवल अपनी मानुषिक भूमिकाओं व दायित्वों का समुचित निर्वाह करता है, अपितु वह निर्वहन अवधि की बाधाओं, कठिनताओं, समस्याओं, विसंगतियों व नकारात्मक आलोचनाओं से भी अविचलित रहता है। शारीरिक योगाभ्यास योग लक्ष्य की आरंभिक यात्रा है। वास्तव में आयुर्वेदिक योग का महात्म्य इससे अनेक गुणा विस्तृत व असीमित है। प्राचीन ऋषियों-मुनियों, साधु-संतो, योगियों-साधकों तथा मनीषियों ने योग के शारीरिक पक्ष का नहीं, अपितु आत्मिक -आध्यात्मिक पक्ष का अभ्यास किया।
वास्तविक रूप में योग, काया नहीं बल्कि आत्मा का अभ्यास है। यह जीवन की आध्यात्मिक एवं दार्शनिक अंतर्दृष्टियों को विकसित करने का प्राकृतिक स्रोत है। योग का अध्यात्म दर्शन आधारित प्रवाह किंचित वैसा ही है, जैसे मनुष्य किसी मनोनुकूल स्वप्नावस्था में होने का अप्रत्याशित व अद्वितीय आनंद प्राप्त करता है। जीवन-दर्शन की मधुधार में प्रवाहित होते ही योग अलौकिक आनंदपुष्पों से संचित हो उठता है। इस आनंदविहार में प्रवाहित मनुष्य को पहलेपहल कायामुक्ति का भान होता है। इस प्रथम अवस्था के बाद यौगिक चेतनाएं माया-मोह से भरे हुए क्षणभंगुर जगत को त्याग कर अपरिचित आत्मिक अस्तित्व का स्पर्श करती हैं। यहां पहुंचने के बाद तो मनुष्य का शरीर उसके लिए नहीं, अपितु मायामोह से ग्रस्त उसके जैसे व उसे देखनेवाले अन्य मनुष्यों के लिए ही जीवित प्रतीत होता है।
यौगिक यात्री के लिए शरीर नगण्य हो उठता है। उसके लिए सांसारिक योगानुभव भी व्यतीत हो जाते हैं। उसे आत्मा के प्रकाश में केवल प्रकाशांश होने का क्षणिक भान होता है। ऐसी यौगिक लगन इस आधुनिक जगत के मानवीय जीवन के व्यवहार में संभव नहीं है। योग तो योग यात्रा का आरंभिक चरण है, जिसकी सहायता से भौतिक संसार को अपेक्षाकृत एक सभ्य, उदार और संतुलित दृष्टिबोध के साथ जीने की प्रेरणा प्राप्त होती है। योग के आरंभिक चरण को सफलतापूर्वक पूर्ण करने के उपरांत मनुष्य जीवन जीने की एक सर्वथा नवीन कला से परिचित होता है। इस दृष्टिबोध में वह स्थायी रूप में मानता है कि जीवन क्षणभंगुर, नश्वर है और इस पर अंशमात्र का अभिमान मूर्खता का पर्याय है। वह पारलौकिक शक्ति के प्रति किसी भी जिज्ञासापरक शर्त के बिना एक गहन लगाव रखने लगता है।
वह स्वयं सहित संपूर्ण ब्रह्माण्ड का कार्यकारण दर्शन आत्मसात करने लगता है। वह जीवन के मोह में बंधने की अपेक्षा मृत्यु की अटल सत्यता का आध्यात्मिक समर्थक हो उठता है। योग का सत्यास्तित्व अध्यात्म से संबद्ध है। अध्यात्म भ्रमपूर्ण भौतिक जगत के प्रति संवदेनशील होता है। अध्यात्म की आत्मोपयोगी शिक्षा से परिचित होने के लिए योग के द्वारा तन-मन को स्वस्थ, ऊर्जावान एवं शक्तिशाली बनाना आवश्यक है। स्वास्थ्य तथा ऊर्जा की समन्वित शक्तियों की प्राप्ति में योग की वृहद् भूमिका है।
-विकेश कुमार बडोला
यह लेखक के अपने विचार हैं।
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