विधेयकों की मंजूरी की समयसीमा पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू, राष्ट्रपति के संदर्भ पर संविधान पीठ ने दी सफाई

पीठ ने कहा कि “हम यह तय नहीं कर रहे हैं कि तमिलनाडु का फैसला सही है या नहीं

विधेयकों की मंजूरी की समयसीमा पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू, राष्ट्रपति के संदर्भ पर संविधान पीठ ने दी सफाई

 उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने की समय-सीमा तय करने से संबंधी राष्ट्रपति के संदर्भ पर मंगलवार को सुनवाई शुरू की

नई दिल्ली।  उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने की समय-सीमा तय करने से संबंधी राष्ट्रपति के संदर्भ पर मंगलवार को सुनवाई शुरू की। मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायधीश न्यायमूर्ति सूर्य कांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर की संविधान पीठ ने तमिलनाडु और केरल द्वारा व्यक्त की गई आशंकाओं को दूर करने का प्रयास किया।

5 सदस्यीय पीठ ने कहा कि राष्ट्रपति के 13 मई 2025 को दिए गए संदर्भ का उत्तर देने से विधेयकों को मंजूरी देने की समयसीमा पर शीर्ष अदालत के तमिलनाडु के संदर्भ में दिए गए फैसले पर कोई असर नहीं पड़ेगा। पीठ ने कहा कि “हम यह तय नहीं कर रहे हैं कि तमिलनाडु का फैसला सही है या नहीं। हम उस मुद्दे पर फैसला नहीं कर रहे हैं। हम केवल राष्ट्रपति द्वारा दिए गए संदर्भ का उत्तर दे रहे हैं।”

शीर्ष अदालत ने तमिलनाडु और केरल सरकारों का पक्ष रख रहे अधिवक्ता की ओर से राष्ट्रपति के संदर्भ की स्वीकार्यता पर ही सवाल उठाने पर ये टिप्पणी की। मुख्य न्यायाधीश गवई की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि अगर राष्ट्रपति स्वयं राष्ट्रपति के संदर्भ के माध्यम से विचार मांग रही हैं तो इसमें क्या गलत है। शीर्ष अदालत केवल सलाहकार क्षेत्राधिकार के तहत कार्य कर रही है।

पीठ ने कहा कि अदालत केवल कानून पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करेगा और तमिलनाडु मामले पर कोई निर्णय नहीं सुनाएगा। न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की (शीर्ष अदालत) पीठ ने तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों पर अपनी स्वीकृति न देने के निर्णय को 8 अप्रैल, 2025 को "अवैध" और "मनमाना" बताया और राष्ट्रपति द्वारा इन विधेयकों को मंजूरी देने के लिए 3 महीने की समय-सीमा निर्धारित की। 2 सदस्यीय पीठ के इस फैसले के बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए शीर्ष न्यायालय से यह जानने का प्रयास किया कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति द्वारा अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करने के लिए न्यायिक आदेशों द्वारा समय-सीमाएं निर्धारित की जा सकती हैं।

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तमिलनाडु सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने तर्क दिया कि वर्तमान मामले की प्रकृति ऐसी है कि पीठ तमिलनाडु मामले के निर्णय को प्रभावित कर सकती है। अदालत ने हालांकि कहा कि पीठ केवल कानून पर अपना दृष्टिकोण रखेगी और तमिलनाडु मामले पर कोई निर्णय नहीं सुनाएगी। उसने यह भी कहा कि पीठ केवल अपनी राय देगी और इससे निर्णय प्रभावित नहीं होगा।

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राष्ट्रपति के इस संदर्भ को अंतर-न्यायालयीय अपील बताते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता सिंघवी ने दावा किया कि राष्ट्रपति का परामर्श क्षेत्राधिकार पुनर्विचार याचिका का विकल्प नहीं हो सकता। उन्होंने तर्क दिया कि संविधान पीठ से तमिलनाडु मामले में निर्णय, गुण-दोष और विषय-वस्तु को बदलने के लिए कहा जा रहा है।

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पीठ ने सिंघवी से पूछा कि “यह उस निर्णय को कैसे बदलेगा जो पहले ही एक खंडपीठ द्वारा दिया जा चुका है? आप इस तरह आगे बढ़ रहे हैं मानो निर्णय स्वतः ही रद्द हो जाएगा। यह सही नहीं है। आप ऐसा क्यों मान रहे हैं।”

केरल सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता के के वेणुगोपाल ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय पहले ही संविधान के अनुच्छेद 200 के संबंध में इसी तरह के प्रश्नों की व्याख्या कर चुका है, जिसके अनुसार राज्यपालों को पंजाब, तेलंगाना और तमिलनाडु से संबंधित मामलों में राज्य के विधेयकों पर ‘यथाशीघ्र’ कार्रवाई करनी होती है। वरिष्ठ अधिवक्ता वेणुगोपाल ने दलील दी कि तमिलनाडु मामले में पहली बार विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर स्वीकृति के लिए एक समय सीमा तय की गई थी। और इस बात पर ज़ोर दिया कि एक बार जब फ़ैसले इस क्षेत्र को शामिल कर लेते हैं तो राष्ट्रपति के नए संदर्भ पर विचार नहीं किया जा सकता।

उन्होंने ने ज़ोर देकर कहा कि केंद्र सरकार को राष्ट्रपति से संदर्भ प्राप्त करने के लिए अनुच्छेद 143 का सहारा लेने के बजाय औपचारिक समीक्षा की मांग करनी चाहिए थी। इस पर पीठ ने उनसे कहा, “हमें एक भी ऐसा फ़ैसला दिखाइए जहाँ खंडपीठ में संदर्भ मान्य न हो। हम इस मुद्दे पर फ़ैसला नहीं कर रहे हैं कि तमिलनाडु सही है या नहीं। अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने केरल और तमिलनाडु दोनों सरकारों की दलीलों का विरोध किया। 

गौरतलब है कि सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पहले लिखित दलील में तर्क दिया था कि राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति पर निश्चित समय-सीमाएँ थोपना सरकार के एक अंग द्वारा संविधान द्वारा उसे प्रदान न की गई शक्तियों को ग्रहण करने के समान होगा तथा इससे ‘संवैधानिक अव्यवस्था’ पैदा होगी। शीर्ष अदालत ने 29 जुलाई को कहा था कि वह राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने की समय-सीमा तय करने से संबंधी राष्ट्रपति के संदर्भ की जांच 19 अगस्त से करेगी।

मुख्य न्यायाधीश गवई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने कहा था , “शुरुआत में हम प्रारंभिक आपत्ति पर एक घंटे तक पक्षकारों की सुनवाई करेंगे। उसके बाद, हम 19, 20, 21, 26 अगस्त को संदर्भ का समर्थन करने वाले अटॉर्नी जनरल और केंद्र सरकार की सुनवाई शुरू करेंगे। संदर्भ का विरोध करने वाले पक्षों की सुनवाई 28 अगस्त, 2, 3 और 9 सितंबर को होगी। यदि कोई प्रत्युत्तर होगा, तो उस पर 10 सितंबर को सुनवाई होगी।” पीठ ने केंद्र सरकार और संदर्भ का विरोध करने वाले पक्षों की ओर से अधिवक्ता अमन मेहता और मीशा रोहतगी को नोडल अधिवक्ता नियुक्त किया था।

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